अब सुप्रीमकोर्ट से राष्ट्रपति मुर्मू की भिडंत

राकेश अचल
लगता है कि सरकार और भाजपा के बडे नेता सुप्रीमकोर्ट को चैन से नही बैठने देंगे. सुप्रीमकोर्ट से पहले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और बाद में उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड ने मुठभेड की थी. दुबे ने सीजेआई को देश में चल रहे तमाम गृहयुद्धों के लिए जिम्मेदार ठहराया था और धनकड ने राज्यपालों के अधिकारों को सीमित करने पर आपत्ति जताई थी. अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के ऐतिहासिक फैसले पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई है,.राष्ट्रपति ने इस फैसले को संवैधानिक मूल्यों और व्यवस्थाओं के विपरीत बताया और इसे संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करार दिया।
संविधान की अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। यह प्रावधान बहुत कम उपयोग में आता है, लेकिन केंद्र सरकार और राष्ट्रपति ने इसे इसलिए चुना क्योंकि उन्हें लगता है कि समीक्षा याचिका उसी पीठ के समक्ष जाएगी जिसने मूल निर्णय दिया और सकारात्मक परिणाम की संभावना कम है।
सुप्रीम कोर्ट की जिस पीठ ने फैसला सुनाया था उसमें जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन भी शामिल थे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था, 'राज्यपाल को किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। इस समय सीमा में या तो स्वीकृति दें या पुनर्विचार हेतु लौटा दें। यदि विधानसभा पुनः विधेयक पारित करती है तो राज्यपाल को एक महीने मे उसकी स्वीकृति देनी होगी। यदि कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा गया हो तो राष्ट्रपति को भी तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।'
राष्ट्रपति नेश्रीमती द्रोपदी मुर्मू ने इस फैसले को संविधान की भावना के प्रतिकूल बताया और कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 में ऐसा कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। राष्ट्रपति ने कहा, “संविधान में राष्ट्रपति या राज्यपाल के विवेकाधीन निर्णय के लिए किसी समय-सीमा का उल्लेख नहीं है। यह निर्णय संविधान के संघीय ढांचे, कानूनों की एकरूपता, राष्ट्र की सुरक्षा और शक्तियों के पृथक्करण जैसे बहुआयामी विचारों पर आधारित होते हैं।”
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि यदि विधेयक तय समय तक लंबित रहे तो उसे 'मंजूरी प्राप्त' माना जाएगा। राष्ट्रपति ने इस अवधारणा को सिरे से खारिज किया और कहा, “मंजूर प्राप्त की अवधारणा संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध है और राष्ट्रपति तथा राज्यपाल की शक्तियों को सीमित करती है।” उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि जब संविधान स्पष्ट रूप से राष्ट्रपति को किसी विधेयक पर निर्णय लेने का विवेकाधिकार देता है तो फिर सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप कैसे कर सकता.
राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की अनुच्छेद 142 के तहत की गई व्याख्या और शक्तियों के प्रयोग पर भी सवाल उठाए हैं । इसके तहत न्यायालय को पूर्ण न्याय करने का अधिकार मिलता है। राष्ट्रपति ने कहा कि जहां संविधान या कानून में स्पष्ट व्यवस्था मौजूद है वहां धारा 142 का प्रयोग करना संवैधानिक असंतुलन पैदा कर सकता है।परोक्ष रुप से राष्ट्पति की चिंता पूरी भाजपाऔर संघ की चिंता है.
हमेशा मौन रहने वाली राष्ट्रपति मुर्मू ने एक और महत्वपूर्ण सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि राज्य सरकारें संघीय मुद्दों पर अनुच्छेद 131 (केंद्र-राज्य विवाद) के बजाय अनुच्छेद 32 (नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा) का उपयोग क्यों कर रही हैं। उन्होंने कहा, “राज्य सरकारें उन मुद्दों पर रिट याचिकाओं के माध्यम से सीधे सुप्रीम कोर्ट आ रही हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 131 के प्रावधानों को कमजोर करता है।”
सवाल ये है कि सरकार एक एककर सभी संवैधानिक प्रमुखों का इस्तेमाल सुप्रीमकोर्ट से टकराने के लिए क्यों कर रही है? हमारी राष्ट्रपति मानें या न मानें हैं तो रबर स्टेंप ही. हां उन्हे हस्तक्षेप का अधिकार संविधान ने जरूर दिया है. उनके पास सरकारी विधेयकों को लौटाने का हक भी है. इस हक का इस्तेमाल दही- मिश्री खिलाने वाले हाथ कभी नहीं करते. ज्ञानी जैल सिंह जैसे राष्ट्रपति जरूर सुप्रीमकोर्ट से टकराने के बजाय सरकार से टकराने का साहस रखते थे. बहरहाल बात ये है कि क्या छह महीने के लिए देश के मुख्य न्यायाधीश बने जस्टिस बीआर गवई साहब राष्ट्रपति महोदया की आपत्तियों का निराकरण कर पाएंगे या फिर गेंद छह माह बाद आने वाले अपने उत्तराधिकारी के पाले में डालकर बच निकलेंगे?
राष्ट्रपति श्रीमती द्रोपदी मुर्मू एक भद्र महिला हैं, वे धनकड की तरह बडबड नहीं करतीं. उनकी इसी विनम्रता का लाभ परोक्ष रूप से अपनी राजनीति के लिए करती रही है. देश में जितने भी विधानसभा चुनाव हाल के वर्षों में हुए सरकार ने चुनाव से पहले राष्ट्रपति को उन राज्यों के आदिवासी अंचलों में भेजा. मप्र, झारखंड के राष्ट्रपति के दौरे इसका प्रमाण हैं. हमें उम्मीद करना चाहिए कि हमारी राष्ट्रपति महोदया अपना राजनीतिक इस्तेमाल नहीं होने देंगी. वे सुप्रीमकोर्ट से भी टकराव मोल नहीं लेंगी.