जब विचारधारा बिकती है, तो वंचितों का अधिकार छिनता है: शैलेन्द्र प्रताप याज्ञिक 

जब विचारधारा बिकती है, तो वंचितों का अधिकार छिनता है: शैलेन्द्र प्रताप याज्ञिक 

भारत के लोकतंत्र की बुनियाद "हम भारत के लोग" पर रखी गई थी — जहाँ हर नागरिक की बराबरी और भागीदारी सुनिश्चित होनी थी। परंतु आज यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या वास्तव में लोकतंत्र का उद्देश्य पूरा हो रहा है?

क्या हाशिए पर खड़े समाज को केवल वोट बैंक बना कर छोड़ा जा रहा है?

बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का सपना था कि समाज के अंतिम व्यक्ति को न्याय मिले और वह मुख्यधारा से जुड़े — आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से। उसी सपने को आगे बढ़ाया जो स्वतंत्र भारत के बिहार के पहले अति पिछड़े वर्ग के मुख्यमंत्री बने जिन्होंने बगैर जाति वर्चस्व, परिवारवाद एवं व्यक्तिवाद को हावी होने से पहले ही संवैधानिक समाजवाद की स्थापना की जो संविधान के उद्देश्य को पूर्ण रूप से लागू कराने के लिए प्रेरित करता था।जननायक कर्पूरी ठाकुर ने, संवैधानिक समाजवाद की नींव रखी ताकि वंचित, पीड़ित, शोषित और अति पिछड़ा समाज सिर्फ पहचान से नहीं, अधिकार से पहचाना जाए।

पर अफसोस, उन मूल्यों के वारिस बनने वाले नेताओं ने उन विचारों को सत्ता की सीढ़ी तो बनाया, लेकिन विचारधारा को सत्ता में बदलने की जगह, सत्ता को जातिवाद और परिवारवाद में बदल दिया।

आज जाति जनगणना का मुद्दा बार-बार उछाला जाता है, लेकिन सवाल है —

क्या जाति आधारित आंकड़ों के बदले, इन समुदायों को निर्णय की टेबल पर जगह मिली?

क्या उन जातियों को हिस्सेदारी मिली, जिन्होंने सत्ता दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाई?

 जो राजनैतिक दल स्वयं को सामाजिक न्याय का प्रतिनिधि मानते हैं — क्या उन्होंने हाशिए पर खड़े वर्गों को सत्ता में भागीदारी दी या केवल चुनावी नारों में शामिल रखा?

आजादी के इतने वर्षों बाद भी बहुजन, वंचित, अति पिछड़ा समाज यदि प्रतिनिधित्व से वंचित है, तो इसका जिम्मेदार कौन है?

हमारा सवाल है:

सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता पाने वाले नेताओं ने क्या कभी नीति निर्माण में वंचितों को भागीदार बनाया?

क्या आरक्षण केवल कागजों में सीमित रह गया?

क्या संवैधानिक समाजवाद को जातिगत वर्चस्व की राजनीति ने निगल लिया?

अब समय है कि वोट देने वाला समाज जागे और सत्ता में हिस्सेदारी मांगे।

अब समय है कि जाति के नाम पर राजनीति करने वालों से सवाल किया जाए कि क्या आपने हमारे नाम पर केवल कुर्सी पाई या अधिकार भी दिए?

अखिल भारतीय मानवाधिकार संघ यह स्पष्ट मानता है कि —

"लोकतंत्र का मतलब केवल सरकार बनाना नहीं, बल्कि हर नागरिक को सम्मान और भागीदारी देना है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो यह लोकतंत्र नहीं, छलतंत्र है।"

अब वक्त है — सामाजिक न्याय को नारों से निकालकर, नीतियों में बदलने का।

अब वक्त है — संवैधानिक समाजवाद को फिर से जीवित करने का।

अब वक्त है — बाबा साहब और कर्पूरी ठाकुर के सपनों को सत्ता के दरबार में सम्मान दिलाने का।

वोट का सौदा, न्याय का नुकसान

वंचितों और अति पिछड़ों की पीड़ा पर राजनैतिक घोषणाएं होती हैं, भाषणों में सामाजिक बदलाव के वादे गूंजते हैं, पर चुनाव बीतते ही सन्नाटा छा जाता है। जिन लोगों को आगे लाने के नाम पर वोट मांगे जाते हैं, उन्हीं की आवाज़ को सत्ता के गलियारों में कुचल दिया जाता है। यह विडंबना नहीं, बल्कि सुनियोजित धोखा है।

जाति वर्चस्व और परिवारवाद की राजनीति

अजीब विरोधाभास यह है कि जो दल 'पिछड़ों के मसीहा' बनने का दावा करते हैं, उन्हीं दलों की कमान किसी खास जाति, परिवार या व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है। नेतृत्व बदलता नहीं, विरासत में मिलता है — और नेतृत्वकारी पदों पर वही जातीय वर्चस्व कायम रहता है, जिसके खिलाफ लड़ने का ढोंग किया जाता है। क्या यही सामाजिक न्याय है?

हाशिए का वोट, हाशिए की हालत

हाशिए पर खड़े लोग — चाहे वे दलित हों, आदिवासी हों, महिलाएं हों या आर्थिक रूप से पिछड़े — बार-बार इस्तेमाल किए गए हैं, लेकिन शायद ही कभी उन्हें नीति-निर्माण में वास्तविक हिस्सेदारी मिली हो। उनका वोट लिया जाता है, पर उनके लिए आवाज़ नहीं उठाई जाती। उनकी समस्याओं को केवल नारों में रखा जाता है, नीतियों में नहीं।

व्यक्तिवाद बनाम जनहित

राजनीति जब किसी एक व्यक्ति की छवि, नाम और पद के इर्द-गिर्द सीमित हो जाए, तो वह सामाजिक न्याय नहीं, 'व्यक्तिगत सत्ता का विस्तार' कहलाता है। जब संगठन जनता की बजाय किसी एक चेहरे के इशारों पर नाचने लगे, तब न्याय की बात करना केवल एक दिखावा बन जाता है।