आत्मिक शांति का सूत्र: अपेक्षा ही दुःख का मूल कारण है। श्री शास्वत सागर जी
मुनिश्री ने कहा कि जब जिनवाणी हृदय में उतर जाती है, तो व्यक्ति जहां भी जाता है, वहां उसका प्रेम, धर्म और आत्मिक तेज स्वतः प्रसारित होता है। गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण से ही शीर्ष स्थान की प्राप्ति होती है और यही जीवन की सच्ची उपलब्धि है। व्यक्ति की आत्मिक प्रसन्नता और वास्तविक मूल्य तभी बढ़ता है जब वह स्वयं को पक्का घड़ा बनाकर गुरु चरणों में अर्पित कर दे।

Surat,आज कुशल दर्शन दादावाड़ी, सूरत में आयोजित चातुर्मास प्रवचन में प. पू. खरतरगच्छाचार्य, छत्तीसगढ़ श्रृंगार, संयम सारथी, शासन प्रभावक श्री पीयूषसागर जी म.सा. के शिष्य पू. श्री शाश्वतसागर जी म.सा. ने जीवन के गूढ़ सत्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि संसार में व्याप्त अधिकांश दुःखों का मूल कारण है — अपेक्षा। जब भी हम किसी व्यक्ति, रिश्ते, परिस्थिति या व्यवस्था से किसी प्रकार की अपेक्षा रखते हैं और वह पूरी नहीं होती, तभी दुःख उत्पन्न होता है। यह अपेक्षा चाहे सरकार से हो, सास-बहू के संबंधों में, व्यापारी और कर्मचारी के बीच या मित्रों के बीच — हर संबंध में दुःख की जड़ यही है।
मुनिश्री ने कहा कि व्यक्ति दूसरों को कई बार परख लेता है, फिर भी उनसे अपेक्षा करना नहीं छोड़ता, यही स्थिति अंततः उसके स्थायी दुःख का कारण बन जाती है। शास्त्रों और भगवान की वाणी भी स्पष्ट कहती है कि अपेक्षा ही दुःख का कारण है। आचार्य पू. श्री यशोवीरमुनि जी म.सा. ने भी कहा कि अपेक्षा ही महादुःख की जड़ है। यदि कोई पूछे कि सुखी कैसे रहा जाए, तो उत्तर होगा — निष्पृह बनो, अपेक्षा से मुक्त हो जाओ।
यदि बच्चा माता-पिता की बात नहीं मानता तो हम दुखी होते हैं क्योंकि हम उससे अपेक्षा करते हैं, परंतु जब हम स्वयं भगवान की वाणी का पालन नहीं करते तब भी भगवान या गुरुजन हमसे कभी दुखी नहीं होते क्योंकि उन्हें हमसे कोई अपेक्षा नहीं होती। यह अंतर ही अध्यात्म और सांसारिकता का है। जब तक व्यक्ति तत्त्वज्ञान को नहीं समझेगा, तब तक वह अपेक्षा के इस जाल से मुक्त नहीं हो सकता। लेकिन जब वह समझ जाएगा कि अपेक्षा ही दुःख का मूल है, तभी वह वास्तविक सुख का अनुभव कर सकता है।
मुनिश्री ने उदाहरण स्वरूप कहा कि यदि किसी शादी या किटी पार्टी में 100 लोग बुलाए गए और उनमें से एक नहीं आया, तो हम 99 के आने की प्रशंसा नहीं करते बल्कि उसी एक की अनुपस्थिति पर चर्चा करते हैं। जो आए, उन्होंने जो लिफाफा दिया, उसमें कितनी राशि थी — इस पर भी हमारी अपेक्षा रहती है। यही छोटी-छोटी अपेक्षाएं मन को लगातार दुःख की ओर ले जाती हैं। यदि हम जीवन में सच्चा सुख चाहते हैं तो हमें अपेक्षा का त्याग करना ही होगा। अपेक्षा की जड़ों को पहचानकर उनसे मुक्त हो जाना ही जीवन की सच्ची प्राथमिकता होनी चाहिए।
प्रवचन के अगले भाग में प. पू. श्री समर्पितसागर जी म.सा. ने कहा कि जीवन में न तो हमें स्थायी सुख का बोध है, न संपूर्ण सुख की समझ है। हम केवल अस्थायी और स्थानांतरित होने वाले सुखों के पीछे भागते हैं। व्यक्ति प्रतिदिन भगवान या अपने इष्टदेव से प्रार्थना करता है कि उसकी ‘लॉटरी’ लग जाए, लेकिन भगवान एक दिन पूछते हैं — तू रोज लॉटरी की बात करता है, पर क्या तूने लॉटरी का टिकट खरीदा?
यह संकेत है कि जब तक पुरुषार्थ नहीं होगा, तब तक न अध्यात्मिक लाभ संभव है न सांसारिक सफलता। केवल प्रार्थना से कुछ नहीं होगा, उसके पहले समर्पण और फिर पुरुषार्थ आवश्यक है। यदि व्यक्ति गुरुचरणों में पूर्ण समर्पण के साथ पुरुषार्थ करे तो अध्यात्मिक ‘लॉटरी’ अवश्य लग सकती है। साधना ही सिद्धि तक पहुँचने का मार्ग है।
उन्होंने कहा कि व्यक्ति अक्सर परमात्मा से कहता है — तू जहां है, मुझे वहां स्थान दे। लेकिन भगवान कहते हैं — तू पहले साधनों को त्याग और साधना को अपनाकर पात्रता बना, स्थान स्वतः मिल जाएगा। स्थान मिल जाना बड़ी बात नहीं, वहाँ टिके रहना ही असली साधना है।
श्री देवचंद जी म.सा. द्वारा बताए गए तीन सूत्रों को उन्होंने विस्तार से समझाया — सुख के समय सावधानी, दुःख के समय समाधान और दूसरों के माध्यम से अपने भीतर परिवर्तन। धर्म के मार्ग पर टिके रहने के लिए एकाग्रता यानी प्रणिधान की आवश्यकता है। जब तक हमारा मन, भावना और श्रवण स्थिर और दृढ़ नहीं होंगे, तब तक जिनवाणी का प्रभाव हमारे जीवन में स्थायी नहीं रहेगा। जैसे कच्चे घड़े में पानी नहीं टिकता, वैसे ही अपक्के मन में धर्म नहीं टिक सकता।
मुनिश्री ने कहा कि जब जिनवाणी हृदय में उतर जाती है, तो व्यक्ति जहां भी जाता है, वहां उसका प्रेम, धर्म और आत्मिक तेज स्वतः प्रसारित होता है। गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण से ही शीर्ष स्थान की प्राप्ति होती है और यही जीवन की सच्ची उपलब्धि है। व्यक्ति की आत्मिक प्रसन्नता और वास्तविक मूल्य तभी बढ़ता है जब वह स्वयं को पक्का घड़ा बनाकर गुरु चरणों में अर्पित कर दे।
सभा के समापन पर बाड़मेर जैन श्रीसंघ के वरिष्ठ सदस्य श्री चम्पालाल बोथरा ने बताया कि प्रवचन में बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति रही। सभी ने आत्ममंथन करते हुए संयम, साधना और समर्पण के पथ पर चलने का संकल्प लिया।