दृष्टि और दृष्टिकोण – अहंकार का विसर्जन ही समर्पण की सच्ची दिशा प. पू. समर्पितसागर जी म.सा

बाड़मेर जैन श्री संघ के चम्पालाल बोथरा ने बताया कि प्रवचनमाला प्रतिदिन कुशल दर्शन दादावाड़ी, पर्वत पाटिया, सूरत में हो रही है। सभी श्रद्धालुओं से आत्मचिंतनपूर्वक सहभाग की अपील की गई।

दृष्टि और दृष्टिकोण – अहंकार का विसर्जन ही समर्पण की सच्ची दिशा  प. पू. समर्पितसागर जी म.सा

Surat,कुशल दर्शन दादावाड़ी, पर्वत पाटिया, सूरत में आज प. पू. खरतरगच्छाचार्य संयम सारथी, शासन प्रभावक श्री जिनपीयूषसागर सूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य प. पू. समर्पितसागरजी म.सा. ने अपने दिव्य प्रवचन में आत्मा की गहराइयों को झकझोरने वाला चिंतन प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि “जीवन को देखना और समझना – इन दोनों के बीच का अंतर ही हमारा भाग्य तय करता है।” किसी वस्तु या परिस्थिति को केवल देखना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उस पर अपनाया गया दृष्टिकोण आत्मा की दिशा और दशा निर्धारित करता है।

एक प्रेरणादायी दृष्टांत के माध्यम से उन्होंने बताया कि एक साधक धर्म आराधना के पश्चात वॉकिंग कर रहा होता है, तभी सामने से दो व्यक्ति सिर पर भारी मार्बल की प्रतिमा लेकर जा रहे होते हैं। साधक सोचता है – “ये प्रतिमा मुझे ले लेनी चाहिए” और वह उन व्यक्तियों को 10,000 रुपये में खरीदने का प्रस्ताव देता है। वे दोनों सोचते हैं – “हम तो इसे 5,000 रुपए की मानते थे, चलो बेच देते हैं।” अब दृश्य एक है, लेकिन दृष्टिकोण दो हैं। जिसने प्रतिमा खरीदी, वह सोचता है – “इन दोनों ने भगवान को बेच दिया, मूर्ख हैं।” और जिन्होंने प्रतिमा बेची, वे सोचते हैं – 5,000 की चीज़ 10,000 रुपये में दे दी, वह मूर्ख है।” इस प्रसंग से पूज्यश्री ने स्पष्ट किया कि दृष्टि केवल देखती है, पर दृष्टिकोण विचार भी जोड़ता है। दृष्टिकोण यदि परमार्थमय हो तो वही आत्मकल्याण की ओर ले जाता है। साथ ही उन्होंने कहा की श्री देवचंदजी म.सा. की ‘आध्यात्मिक गीता’ का उल्लेख करते हुए उन्होंने तीन प्रकार की दृष्टियों को बताया – वर्तमान दृष्टि, जो आज के सुख-दुख को देखकर निर्णय लेती है; दूरदृष्टि, जो भविष्य की चिंता और विवेक के साथ निर्णय करती है; और परिणाम दृष्टि, जो इस लोक तक ही नहीं बल्कि परलोक और भावी जन्मों को ध्यान में रखकर निर्णय करती है। शास्त्रकारों के अनुसार व्यक्ति को परिणाम-लक्षी बनना चाहिए, तभी वह वर्तमान और भविष्य दोनों को सुधार सकता है। 

गुलाब और कांटों का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि गुलाब ने अपनी सुंदरता, महक और वर्तमान की शोभा को देखा लेकिन परिणाम नहीं देखा। आज वह कांटों में फँसा है। उसके पुण्य उदय में सौंदर्य तो आया, पर साथ ही पाप भी, जिससे वह पीड़ा में है। इसलिए जीवन में प्रक्रिया को नहीं, परिणाम को पकड़ो। उन्होंने चेताया कि आत्मा के समर्पण को जो बहा देता है, वह है – अहंकार। यदि व्यक्ति के भीतर अहंकार है, तो उसके सभी गुण, साधना, श्रद्धा सब बह जाते हैं। अहंकार ही साधना का सबसे बड़ा शत्रु है।

उन्होंने कहा कि यदि इस चातुर्मास में हमने गुरु की दृष्टि और भगवान महावीर का दृष्टिकोण समझ लिया, तो जीवन का विजन स्पष्ट हो जाएगा और आत्मा की भटकन का कारण भी ज्ञात हो जाएगा।

इसी क्रम में प. पू. शास्वतसागर जी म.सा. ने भी अपने प्रवचन में आत्मचिंतन का विषय प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि “परमात्मा के दर पर जाएं तो भक्ति लेकर जाएं, भौतिक इच्छाएं नहीं।” हम मंदिरों और तीर्थों पर – गिरनार, शत्रुंजय, शंखेश्वर, सम्मेद शिखर जैसे पावन स्थलों पर जाते हैं, लेकिन जब हम परमात्मा के समक्ष पहुंचते हैं तो हमारी झोली में भक्ति नहीं, बल्कि भिक्षा होती है। हम मांगते हैं – व्यापार, परिवार, गाड़ी, महल, सुख-सुविधाएं। जबकि जिन परमात्मा को हम पूजते हैं, उन्होंने इन सभी चीज़ों का त्याग किया था। यह हमारे जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी और विरोधाभास है।

उन्होंने कहा कि भक्त वह होता है जो परमात्मा जैसा बनना चाहता है, जबकि भिखारी वह है जो परमात्मा से संसार चाहता है। आज जिनमंदिरों में सम्यकदृष्टि देवों को ही स्थान मिलता है, वहाँ भी लोग अपने सांसारिक रिश्तों और इच्छाओं के लिए 101 के प्रसाद से मनोकामनाएं मांगते हैं – यह आत्मा की दिशाहीनता है। मंदिर में प्रवेश से पूर्व की “पहली निसाही” का अर्थ है – संसारिक बातों का त्याग कर मंदिर में प्रवेश करना, लेकिन यदि वहां भी हम मोह, माया और अपेक्षाएं लेकर जाते हैं तो हम दोषमुक्त कैसे बनेंगे?

पूज्यश्री ने आगे कहा कि दुख और दोषों से मुक्ति की पहली शर्त है – अपेक्षाओं का त्याग। जब तक संसार असरदार लगेगा और उसका मोल लगता रहेगा, तब तक आत्मा दुख से घिरी रहेगी। आज के युग की विडंबना है कि व्यक्ति के पास सुख के साधन – धन, तकनीक, वाहन, सेवक – तो आ गए हैं, लेकिन समय और आनंद नहीं आया, क्योंकि साधनों से अधिक हमारी अपेक्षाएं बढ़ गई हैं और तृप्ति घट गई है। जो व्यक्ति त्याग और सहनशक्ति को अपने जीवन में अपनाता है, वही वास्तव में सापेक्ष सुखों को त्यागकर आत्मिक शांति को प्राप्त करता है।

प्रवचन के अंत में पूज्यश्री ने सभी श्रद्धालुओं से आह्वान किया कि मंदिरों और तीर्थों पर जाकर भक्त बनें, भिखारी नहीं। परमात्मा से संसार मत मांगो – परमात्मा जैसा जीवन मांगो।

बाड़मेर जैन श्री संघ के वरिष्ठ सदस्य श्री चम्पालाल बोथरा ने जानकारी दी कि प्रवचनमाला प्रतिदिन कुशल दर्शन दादावाड़ी, पर्वत पाटिया, सूरत में आयोजित हो रही है। सभी श्रद्धालुओं से अनुरोध है कि समय पर पधारें और आत्मचिंतन करें।

संकलन कर्ता:-चम्पालाल बोथरा