भारत की भावी पीढ़ी को खोखला बना रहा धर्म के आधार पर बढ़ता भेदभाव


 

- अतुल मलिकराम (लेखक और राजनीतिक रणनीतिकार)

Prakhar news views express 

Increasing discrimination on the basis of religion is making India's future generation hollow

विश्व की सबसे बड़ी आबादी के साथ भारत विविधिता में एकता का सन्देश देने वाला एक अनोखा देश है, जिसे विभिन्न धर्म, जातियों, संस्कृतियों और भाषाओं का घर भी कहा जाता है। हमने भारतीय संस्कृति में विविधिता को समृद्धि से जोड़कर देखा है, लेकिन मौजूदा समय में धर्म के आधार पर देश के भीतर, घर करता भेदभाव का कीड़ा, हमारी भावी पीढ़ी को अंदर से खोखला बना रहा है। अब सवाल यह है कि तिल-तिल करते देश की युवा और भावी पीढ़ी की रगों में घुलते भेदभाव के जहर को, आखिर कम और जड़ से खत्म करने के लिए हम क्या उपाए कर रहे हैं?  

इसमें कोई दो राय नहीं है कि धार्मिक तत्वों का समाज में महत्वपूर्ण योगदान होता है, लेकिन जब यह योगदान भेदभाव को बढ़ावा देना का कारक बनने लगता है, तो यह समाज के लिए एक ऐसा खतरनाक हथियार साबित हो जाता है, जिसका इस्तेमाल एक धर्म को दूसरे से बड़ा दिखाने की प्रवृत्ति को जन्म देता है, जो सीधे तौर पर सामाजिक असमानता और लोगों के बीच विभाजन को बढ़ावा देने का काम करता है। इससे न सिर्फ सामाजिक समृद्धि पर प्रतिबन्ध लगता है, बल्कि यह देश के विकास में भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। 

फिलहाल तो नौबत ऐसी है कि अब शिक्षा के मंदिरों में भी धर्म के नाम पर भेदभाव का प्रभाव तेजी से दिखने लगा है। पिछले दिनों यूपी के मुजफ्फरनगर में एक महिला शिक्षिका द्वारा मुस्लिम बच्चे को हिन्दू बच्चों से पिटवाने का मामला, हमें सोचने पर मजबूर करता है कि हम देश चलाने वाली भावी पीढ़ियों के मासूम मन को कितना जहरीला बनाते जा रहे हैं। हम से तात्पर्य, उस हर एक व्यक्ति विशेष से है, जो सामाजिक सौहार्द्र की दिशा में बढ़ती खाई को और अधिक बढ़ाने वालों के खिलाफ चुप्पी साधे हुए है। 

कहते हैं कि बच्चों का मन, कोरे कागज़ समान होता है, जिस पर स्याही से खींची गई हर लकीर, सदा के लिए छप जाती है। लेकिन मौजूदा वक्त में बच्चों के मस्तिष्क पर धार्मिक कट्टरता की स्याही से जो लकीर खींची जा रही है, उसके खिलाफ समाज के प्रत्येक पढ़े-लिखे संवेदनशील व्यक्ति को आगे आने की जरुरत है, क्योंकि इस समस्या का हल सामाजिक तत्वों द्वारा सामान्यता, समानता और विविधता के प्रति समर्पण भाव से ही निकाला जा सकता है। 

इसके अतिरिक्त बच्चों में फैलाई जा रही धार्मिक भेदभाव जैसी जटिल समस्या का निवारण, सामाजिक संगठनों, मीडिया, और शिक्षा व्यवस्था के सहयोग से ही निकाला जा सकता है। बशर्ते शिक्षा में धार्मिक मूल्यों की महत्वपूर्ण भूमिका को ऐसे प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है कि वे सभी मानवता के एक हिस्से के रूप में देखे जा सकें, न कि विभिन्नता की वजह से, उनमें असमानता की भावना पैदा हो। संभवतः एक विकासशील देश की युवा और भावी पीढ़ी को समझाने के लिए उन्हें सभी धर्मों के प्रति समर्पित बनाने की जरुरत है, जिससे वे एक सहयोगी, समरस और समग्र भारत की दिशा में आगे बढ़ सकें।

अंत में एक सुदृढ़, सकारात्मक और विकासोन्मुख समाज के रूप में हमें धर्म के आधार पर बढ़ते भेदभाव के खतरे को समझने और उसका समाधान निकालने को प्राथमिकता में रखने की भी जरुरत है। इसके साथ ही हमें सामाजिक एकता, समरसता, और सद्भावना को बढ़ावा देने के लिए, संयम से काम लेने की आवश्यकता भी है, ताकि हमारी भावी पीढ़ी एक सशक्त, समृद्ध, और एकत्रित भारत की दिशा में अग्रसर हो सके। हमें यह भी समझने की जरुरत है कि हमारे बच्चे ही कुछ समय में सयाने होकर, स्वाभाविक रूप से हमारी आप की जगह, समाज और राष्ट्र का भार वहन करेंगे, इसलिए उनके मन मस्तिष्क को राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ धर्मनिरपेक्ष बनाना भी हमारी ही जिम्मेदारी है।

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