क्यों देश में विपक्ष खत्म होता जा रहा है?

 

अंजना मिश्रा 

जिस प्रकार विपक्ष आज मौन है। वैसे वैसे विपक्ष की भूमिका का प्रभाव राजनीति से दूर होता जा रहा है। सत्ताधारी पार्टी जो भी करें सही या गलत आज जनता को सर झुका कर मानना पड़ रहा हैl विपक्ष का काम होता है कि सरकार के काम से गलतियां निकालना और देश हित मै निर्णय करवाना परंतु गलतियां निकालने का जो स्तर है वह शून्य है।

विपक्ष के पास ऐसे प्रवक्ताओं की कमी है या फिर लीडर्स की कमी है जो बात करने में माहिर हो और मुद्दों पर गंभीरता से बात रखते हो।सत्ताधारी पार्टी के निर्णयों पर विपक्ष बिल्कुल असमर्थ है।

 विपक्ष ऐसे चुप बैठ गये है मानो कि उनके मुँह में उनके दही जम गया हो, आज की बात करें तो विपक्ष बचा ही नहीं है जो गलत को गलत कह सके, और सही को सही की राह दिखा सके ऐसा लग रहा है अब पहले जैसे एक सटीक, स्पष्ट बोलने वालाऔर हर गलत मुद्दों पर आवाज उठाने वाला विपक्ष कन्ही खो गया है जो सकारात्मक तरीके से मुद्दों पर आवाज उठाकर सरकार को भी मजबूर कर देती थी अपने घुटने टेकने पर, अब वो विपक्ष रही ही नहीं, धीरे धीरे विपक्ष का अभाव पूरी तरह से नज़र आ रहा है l हर प्रकार से विपक्ष फेल होते जा रहे हैं। अभी फिलहाल सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी भी मुद्दों पर आवाज उठाते है पर कोई दमदार तरीके से नहीं उठाते है एक बार बोलेंगे तो दूसरी बार चुप बैठ जाते है जिससे सप्ताह धारियों को बल मिल रहा है और लोकतंत्र खतरे में है l

आजादी के बाद से देश मे सशक्त विपक्ष था पर अब कुछ बरसों मे विपक्ष बिलकुल नदारत है l सोनिया गांधी और बाकी सब कांग्रेसी और भी दल निस्क्रीय से हो गये है l

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता पक्ष और विपक्ष एक गाड़ी के दो पहिये के समान होते हैं। लोकतंत्र की जीत के लिए इसके दोनों पहियों का स्वस्थ और सही दिशा में गतिमान होना निहायत जरूरी है। लोकतंत्र की सफलता दोनों पक्षों की सक्रियता पर निर्भर करती है, लेकिन आजादी के बाद भी आज संसद और विधानसभाओं में जो कुछ देखने को मिल रहा है, वह हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता और विश्वसनीयता पर अंगुली उठाने के लिए काफी है। लोकतंत्र में विपक्ष की उपस्थिति संजीवनी के समान है। यह सत्ता पक्ष को उचित दिशा में कार्य करने को मजबूर तो करता ही है, साथ ही लोकतंत्र राजतंत्र का रूप न ले ले, इसकी भी गारंटी देता है। लेकिन बहस और आलोचनाएं केवल सकारात्मक दिशा में हों। देश और समाज के निर्माण में सदन की जो रचनात्मक भूमिका है, उसे विपक्षी होने के नाते बाधित नहीं किया जाना चाहिए।

एक मजबूत लोकतंत्र के लिए जितना एक सशक्त सरकार की आवश्यकता होती है, उतनी ही सबल विपक्ष की। ऐसे उदाहरण सामने हैं, जब जनता ने कमजोर सरकार को जड़ से उखाड़ फेंका व उसके विकल्प में उस समय के सबल-विपक्ष को बहुमत दिया। कुछ ऐसे उदाहरण भी समाने आए हैं जिनमें यह देखने को मिला कि कमजोर विपक्ष के कारण देश में एक बहुमत वाली सरकार ने तानाशाही का रूप ले लिया। राजीव गाँधी ने नवीं लोकसभा (1989) में कांग्रेस की हार के बाद कहा था कि ‘हमें’ जनता ने विपक्ष में बैठने की अनुमति प्रदान की है, वे सरकार में प्रहरी की भूमिका का निर्वाहन करेंगे।

वास्तव में हमारी संसदीय राजनीति में ‘विपक्ष’ की परंपरागत परिभाषा दिन-ब-दिन बदलती जा रही है। प्रतीत होता है कि मौजूदा परिदृश्य में विपक्ष का एकमात्र अर्थ रह गया है-सत्ता पक्ष के किसी भी नीति या सिद्धांत का ऐसा पुरजोर विरोध कि खबर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ से नीचे न बने। क्योंकि सभी पार्टियों के नेतागण विपक्ष में रहने पर इसी तरह के व्यवहार का अनुकरण करते नजर आते हैं। सुदृढ़ व संगठित विपक्ष लोकतंत्र की निशानी है। विपक्ष शब्द विरोध की प्रतिध्वनि देता है, जबकि प्रतिपक्ष दायित्व बोध को प्रकट करता है।

लोकतंत्र अन्य सब शासन प्रणालियों से श्रेष्ठ इसीलिए माना जाता है, क्योंकि उसमें सत्ता पक्ष के अतिरिक्त एक सबल विपक्ष भी होता है, जो शासकों की त्रुटियाँ बतलाता है, उसकी आलोचना करता है, उस पर अंकुश और उसके विरोध का भय शासकों को मनमानी करने से रोकता है। बस यही कहना है कि विपक्ष ऐसा होना चाहिए जो सही और जनता के मुद्दों के लिए आवाज उठाये और अपनी बात को रख सके एक मजबूत तरीके से और लोगों में अपनी पकड़ बनाए। लोगों को विश्वास दिलाएं।

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