स्वतंत्रता आंदोलन के अल्पज्ञात सेनानी


---फोटो - राजा महेन्द्र प्रताप सिंह----


 


स्वतंत्रता आंदोलन के उन अल्पज्ञात सेनानियों के बारे में है, जिन्होंने अपने देश की धरती से दूर विदेश में रहकर देश की आजादी के लिये महज संघर्ष ही नहीं किया बल्कि विश्व जनमत को इसके पक्ष में किया। इनके प्रयासों की चर्चा किए बगैर हम भारत की आजादी की लडाई को सही परिप्रेक्ष्य में नही समझ सकते हैं । 


भारत की आजादी में इनका योगदान, भारत में रहकर लड़ने वाले आदिवासी विद्रोहियों, किसान नेताओं और क्रान्तिकारी राष्ट्रवादियों से कमतर नहीं हैं । इनमें प्रसिद्ध नाम श्याम जी कृष्ण वर्मा, सरदार सिंह राव जी राणा, मादाम कामा, लाला हरदयाल, सोहन सिंह भखना, विनायक दामोदर सावरकर, वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय, मदन लाल धींगरा, सरदार अजीत सिंह, सूफी अम्बा प्रसाद, रासबिहारी बोस, राजा महेन्द्र प्रताप, बरकतुल्ला खान, चंपक रमण पिल्लई, पांडुरंग खानखोजे, कर्तार सिंह सर्राभा, सोहन लाल पाठक भूपेन्द्र नाथ दत्त और भाई परमानंद हैं । 


जो इतिहास से छेड़छाड़ करते हैं, वे इस बात को कभी भी स्वीकार नही करेंगे कि भारत की प्रथम प्रवासी आजाद हिंद सरकार की स्थापना, अफगानिस्तान में राजा महेन्द्र प्रताप और बरकतुल्ला खान ने 1 दिसम्बर सन 1915 ई. को की थी । इस सरकार के राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप, प्रधानमंत्री बरकतुल्ला खान, गृहमंत्री अब्दुल्ला सिंधी तथा अन्य मंत्री डा. मथुरा सिंह थे । डा. मथुरा सिंह को रूस की जार सरकार ने फाँसी दे दी थी । राजा महेन्द्र प्रताप ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान में एक अधिशासी बोर्ड का गठन किया था जिसके वे अध्यक्ष, रासबिहारी बोस उपाध्यक्ष तथा आनंद मोहन सहाय मुख्य सचिव थे । यही बोर्ड बाद में आजाद हिंद फौज के रूप में गठित किया गया । जापान सरकार ने राजा महेन्द्र प्रताप को नजरबंद कर दिया, और जब द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय हो गई तब अमेरिकी सेना ने उन्हे जेल में बंद कर दिया । राजा महेन्द्र प्रताप छः महीने तक जेल में बंदी रहे, जब भारत में उनके बंदी होने की खबर पंहुची तब कांग्रेस, पं जवाहर लाल नेहरू तथा महात्मा गाँधी ने हस्तक्षेप किया और राजा महेन्द्र प्रताप जेल से रिहा किये गए । 9 अगस्त सन 1946 ई.को वे मद्रास बंदरगाह पर उतरे, 15 अगस्त सन 1946 ई.को मथुरा वापिस आए , जहाँ से वे 31 वर्ष पूर्व विदेश गए थे और अमेरिका, टर्की, यूरोप, चीन, जापान, तिब्बत, ईरान, अफगानिस्तान में भटकते हुए जीवित शहादत के कष्ट को भोगा । उनका यह त्याग और बलिदान अगतानुगतिक है । 


मैं जब फारवर्ड ब्लॉक के अपने साथियों से, विमर्श में यह कहता हूं कि प्रथम प्रवासी अस्थाई सरकार, सुभाष चन्द्र बोस ने नही बल्कि राजा महेन्द्र प्रताप ने गठित किया था तब उन्हे आश्चर्य होता है । 


पं जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा #मेरी कहानी में राजा महेन्द्र प्रताप का जिक्र बडे ही आदर-भाव से किया है । सन 1924 ई . में राजा महेन्द्र प्रताप के आमंत्रण पर मोतीलाल नेहरू और जवाहर लाल नेहरू, सोवियत संघ गए थे । पं नेहरू सोवियत संघ से तीन बातें सीख कर आए थे - 


(1) नियोजित अर्थव्यवस्था 


(2) राजकीय पूंजी लगाकर आधारभूत संरचना खडा करना 


(3) लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना। 


वैसे पं नेहरू, मूलतः लास्की के शिष्य और फेवियन समाजवादी थे । सोवियत संघ आने का निमंत्रण सुभाष चन्द्र बोस को भी प्राप्त हुआ था परन्तु ब्रिटिश सरकार और भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी के अडंगे की वजह से उनका जाना न हो सका किन्तु सुभाष चन्द्र बोस की श्रद्धा सोवियत संघ पर अंत तक बनी रही । रोमा राला ने सुभाषचंद्र बोस को मार्क्सवाद का निकटवर्ती कह कर परिभाषित किया था 


राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म सन 1886 ई. में अलीगढ़ के मूरसान रियासत के राजकुमार के रूप में हुआ था । इन्हें हाथरस के राजा ने अपना दत्तक पुत्र बनाकर, हाथरस की गद्दी सौंप दी तथा इनका नाम खड़क सिंह के स्थान पर महेन्द्र प्रताप रख दिया । इन्होने सन 1909 ई. में अपनी आधी रियासत प्रेम महाविद्यालय को दान कर दिया था, वे सम्पूर्ण रियासत को दान कर रहे थे किन्तु महामना मालवीय ने उन्हे मना किया कि यह पारिवारिक संपत्ति है इसमें परिवार के दूसरे सदस्यों का भी हिस्सा है अतः आप सम्पूर्ण संपत्ति दान नही कर सकते हैं । महामना के इस सुझाव के बाद उन्होंने आधी सम्पत्ति को वृंदावन के प्रेम महाविद्यालय को दान कर दिया । 20 दिसंबर सन 1914 ई को अपनी रानी बिलखता छोडकर, बंबई होते हुए विदेश के लिए रवाना हो गए। 


राजा महेन्द्र प्रताप लंदन में पहले श्याम जी कृष्ण वर्मा से मिले, फिर इनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई । लाला हरदयाल ने उन्हे जर्मनी जाने का परामर्श दिया ताकि वे जर्मनी से भारत को आजाद कराने हेतु सहायता प्राप्त कर सकें । सावरकर के अंडमान में सजायाफ्ता होने के बाद इंडिया हाउस के प्रभारी वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय थे, उनकी सहायता से राजा महेन्द्र प्रताप, जर्मनी चले गए । भारत से उन्हें महाराजा झालावाड़, लाला लाजपत राय और काशी के जमींदार शिव प्रसाद गुप्त के पत्र मिलें, जिसमें उनसे अनुरोध किया गया था कि जर्मनी से सहायता नहीं लें । परन्तु "दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है " सिद्धान्त के अनुसार उन्होंने जर्मनी के चांसलर #कैसर से मुलाकात कर, सहायता का आश्वासन प्राप्त कर लिया । राजा महेन्द्र प्रताप ने इस्तांबुल होते हुए तुर्की के खलीफा से मुलाकात की तथा समर्थन का आश्वासन प्राप्त किया, तुर्की के युद्ध मंत्री अनवर पाशा ने उन्हे अफगानिस्तान के शाह के नाम एक सिफारिशी पत्र भी दिया था । जर्मनी ने 25000 की सेना अफगानिस्तान के रास्ते, भारत पर चढाई करने हेतु देना स्वीकार किया था परन्तु इंग्लैंड से युद्ध में अनवर पाशा के मारे जाने के बाद, उस फौज का अफगानिस्तान आना संभव नही हो सका । दक्षिणी ईरान में ब्रिटिश फौज डटी हुई थी, तब राजा महेन्द्र प्रताप उत्तरी ईरान के रेगिस्तान के दुर्गम और चक्करदार रास्ते से होते हुए अफगानिस्तान पंहुच गए। अफगानिस्तान के हबीबुल्ला ने 15000 की फौज देने का आश्वासन दिया और अंग्रेजो के विरूद्ध युद्ध की घोषणा करने को तैयार हुआ किन्तु षडयंत्र के तहत उनकी हत्या कर दी गई । अफगानिस्तान में उथल पुथल का दौर शुरू हो गया, मार्च 1919 में नए अमीर अमानुल्ला, जब अफगानिस्तान के शाह हुए तब उन्होने राजा महेन्द्र प्रताप के आजाद हिंद सरकार के साथ एकजुट होकर, 4 मई सन 1919 ई. को अंग्रेजो के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया । इस युद्ध में अमानुल्ला की हार हो गई और उसे अंग्रेजो से संधि करनी पडी । 


राजा महेन्द्र प्रताप ने अपने विश्वस्त अमीरचंद बम्बाल को संदेश भेजा कि भारत में 9 मई को सशस्त्र क्रांति का बिगुल फूंका जाए परन्तु सावधान अंग्रेजो ने विद्रोह फूटने से पूर्व ही सभी को गिरफ्तार कर लिया। 


राजा महेन्द्र प्रताप ने सोने के चादर पर मज़मून लिखकर, रूस के जार को सहायता का संदेश भेजा, यह सुनहरा पत्र लेकर मथुरा सिंह और खुशी मुहम्मद, रूस गए किन्तु रूस के शासक जार ने मथुरा सिंह को फाँसी दे दी । राजा महेन्द्र प्रताप निराश नहीं हुए, जब रूस में क्रान्ति संपन्न हो गई तब उन्होने ट्राटस्की और लेनिन के माध्यम से अफगानिस्तान और रूस के मध्य मैत्री संबंध स्थापित कराया । 


7 मई सन 1919 ई.को राजा महेन्द्र प्रताप ने क्रेमलिन में लेनिन से मुलाकात की, इस मुलाकात के बाद भी सोवियत संघ ने स्पष्ट तौर सहायता का भरोसा नही दिया 


इसके बाद उनका अमेरिका जाना हुआ जहां उनकी मुलाकात गदर पार्टी के नेता जगत सिंह से हुई, वहां उन्होने गदर पार्टी के आपसी झगड़े को सुलझा कर एकजुट करने में महती भूमिका निभाई । वहां से जापान के याकाहोमा नगर पंहुच कर रासबिहारी बोस से मुलाकात कर अपना कार्यालय खोलकर ,भारत की आजादी के लिए प्रचार का कार्य आरंभ कर दिया । पेकिंग में चीनी नेता #लिंग चांग मिंग से सहायता की गुहार लगाई, फिर 2 मार्च सन 1923 ई. को सोवियत संघ होते हुए काबुल आ गए । वहां उन्होने भारत के प्रसिद्ध अखबार प्रताप, स्वराज, मिलाप, अकाल और जमींदार आदि समाचार पत्रों में भारत की आजादी के संबंध में कई लेख लिखे। 


राजा महेन्द्र प्रताप 1 जनवरी सन 1925 को पुनः अमेरिका पहुंचे और तिब्बत - नेपाल के रास्ते भारत पर चढाई की योजना बनाई । प्रारंभ में गदर पार्टी के रहमत अली ने इसका विरोध किया किन्तु बाद में समूची गदर पार्टी राजा महेन्द्र प्रताप के साथ एकजुट हो गई । राजा महेन्द्र प्रताप को चीन से सहयोग प्राप्त तो हुआ परन्तु तिब्बत ने सहयोग नही किया । रहमत अली की फाँसी हो गई, राजा महेन्द्र प्रताप की सरकार के प्रधानमंत्री बरकतुल्ला खान का सन - फ्रांसिस्को में देहान्त हो गया तथा वहीं उनकी समाधि बनी ।


राजा महेन्द्र प्रताप ने पूरे चालीस बरस तक, विदेशों में दर-दर भटकते हुए, भारत की स्वतंत्रता के लिए अजश्र प्रयास किया ।


राजा महेन्द्र प्रताप, रासबिहारी बोस तथा आनंद मोहन सहाय ने जिस अधिशासी बोर्ड का गठन किया था , वही बोर्ड बाद में आजाद हिंद फौज का स्वरूप ग्रहण किया, जो विरासत के तौर पर सुभाषचंद्र बोस को प्राप्त हुआ । राजा महेन्द्र प्रताप,अपने प्रयास में बार बार असफल होते रहे किन्तु अपने लक्ष्य, प्रयास और आत्मविश्वास को, अनेक कठिनाइयों के रहते हुए भी कभी नही छोडा । ऐसा उदाहरण संसार में आपवादिक है ।


हम सुभाषवादियों को उनके इस देन को कभी नही भूलना चाहिए और उनका यह बलिदान हमें भविष्यें भी प्रेरणा देते हुए पथ-प्रदर्शन करता रहे, यही चाह होनी चाहिए ।


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