*कुर्सी का मोह और राजनैतिक विचारधारा का पतन*
आज राजनीति में जो गतिविधियां चल रही हैं l उससे राजनीति कोई नीति नहीं रह गई l इस में लेस मात्र असत्य नहीं है। आज राजनीति में मंडी सजी हुई है l जहां विधायकों की खरीद-फरोख्त का दौर चल रहा है l कोई कुर्सी बचा रहा है तो कोई कुर्सी हिला रहा है l जिसे देखो वह सत्ता की रोटियां सेक रहे हैं l आए दिन खबरों में यही सुनने मिल रहा है कि कांग्रेस से पार्टी छोड़ बीजेपी में, बीजेपी से पार्टी छोड़ कांग्रेस में कई विधायक आए । पहले राजनीति में किसी पार्टी का दामन थामने से यह माना जाता था कि हम उस पार्टी की विचारधारा के अनुयाई हैं ।अब तो जहां वजन वहां भजन की प्रथा राजनीति में चालू हो गई है । मध्यप्रदेश राजस्थान ही नहीं कई अन्य प्रदेशों में भी स्थिति काफी अच्छी नहीं है l ऐसे लग रहा है कि सत्ता और पद के लालच में हर पार्टी हर दल भाजपामय हो जाएगा या भाजपा में विलय हो जाएगा l संघीय व्यवस्था की दल-बदल से रक्षा हेतु दो पूर्व प्रधानमंत्रियों के कदमों की सराहना करनी चाहिए। पहले स्व. राजीव गांधी, जिन्होंने 1985 में पहली बार दल-बदल विरोधी कानून बनाकर भारतीय संविधान में 52वां संशोधन कराया और दल-बदल को गैर कानूनी करार दिया। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्यों को छोड़कर कई छोटे-छोटे राज्य भी हैं, जहां सदन में निर्वाचित सदस्यों की संख्या 100 से भी कम है। उस दशक में इन राज्यों में छोटे-छोटे दलों का एक तिहाई की संख्या में दल-बदल का सिलसिला चल पड़ा। जनता किसी दल को वोट देती और विजयी उम्मीदवार किसी दूसरी विचारधारा वाले दल में शामिल होने लगे।
लोकतंत्र के सामने आए इस मूल्यहीनता व राजनीतिक चरित्र हनन के दौर को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने संविधान में 91वां संशोधन और 10वीं अनुसूची में बदलाव कर दल-बदल को और सख्त कर दल बदलने के लिए पूर्व में स्थापित एक तिहाई की संख्या को बढ़ाकर दो तिहाई कर प्रावधान और कड़े कर दिए। लेकिन देश का दुर्भाग्य देखिए कि नेताओं ने आगे चलकर अपने स्वार्थों के लिए स्थापित राजनीतिक मूल्यों को खंड खंड कर दिया। अटल जी की सरकार के समय सन 2000 में संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए बने राष्ट्रीय आयोग (एनसीआरडब्ल्यूसी) ने भी अपने प्रतिवेदन में दलबदलुओं को मंत्री पद, सार्वजनिक लाभ का पद नहीं देने की अनुशंसा की थी। ऐसे नेताओं को नई विधानसभा के गठन या वर्तमान विधायिका के कार्यकाल तक के लिए दंडित किए जाने की सिफारिश की थी। अटल जी ने तब नहीं सोचा होगा कि उनकी ही पार्टी के नेता आगे चलकर न सिर्फ दलबदल की स्तरहीन शृंखला शुरू करेंगे, बल्कि ऐसे लोगों को बिना विधायक बने मंत्री पद सहित लाभ के पदों पर आसीन कर देंगे।
राजनैतिक विचारधारा का गिरता स्तर अब चरम पर है। मध्यप्रदेश का राजनैतिक दलबदल घटनाक्रम अब तक का देश का सबसे निम्न स्तरीय राजनीतिक घटनाक्रम है। जहां दो तिहाई दलबदल कराने में असफल रहे नेताओं ने 22 विधायकों से इस्तीफा कराकर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार गिराने का अनैतिक कार्य करते हुए दलबदल किया और भाजपा में शामिल हो गए। इनमें से 14 को बिना विधायक बने ही मंत्री बना दिया गया। ऐसा ही कलंकित कांड कर्नाटक में हुआ था, जहां कांग्रेस के 10 विधायकों के इस्तीफे करवाकर कांग्रेस व जदयू की सरकार गिराई गई और भाजपा ने बैक डोर से एंट्री की ।
लोकतंत्र के मुंह पर उस समय कालिख पोती गई, जब आंध्रप्रदेश में 4 विधायक वाली भाजपा के पाले में तेलुगु देशम पार्टी के चार राज्यसभा सदस्य शामिल हो गए। क्या ऐसे सदस्य सही अर्थों में अपने राज्य या दल का सदन में प्रतिनिधित्व करने के लिए नैतिक रूप से योग्य हैं? इस समय की राज्यसभा एक ऐसी राज्य सभा बनने जा रही है जिसमें अनेक सदस्य पाला बदलकर या इस्तीफा देकर भाजपा से राज्यसभा की कुर्सी पा चुके हैं।
आज भारत के सभी दलों को चाहिए कि इस संकट पर राष्ट्रीय स्तर की खुली बहस हो। निजी स्वार्थों के चलते आए दिन हो रहे दलबदल को कैसे रोका जाए। ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिसमें दल छोड़ने वाले सांसद, विधायक को कम से कम छह साल के लिए चुनाव लड़ने, मंत्री बनने या लाभ के किसी भी पद पर नियुक्ति करने से निरूद्ध किया जाए। देश के हर नागरिक की भी अब सहभागिता अनिवार्य है उन्हें भी दिखाना होगा जनतंत्र जनता का शासन है दल बदलुओं का नहीं ।