गणेश शंकर विद्यार्थी अमर गाथा

स्वतंत्रता के पूर्व प्रकाशित अधिसंख्य पत्र-पत्रिकाओं का मुख्य उद्देश्य आजादी के लिए संघर्ष करना था। उस दौरान पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ओजपूर्ण लेखनी ने क्रान्ति की ज्वाला को भारतीय जनमानस में प्रज्जवलित करने एवं उसे व्यापक स्वरूप प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई। तब पत्रकारिता पेशा अपनाने का अर्थ ब्रिटिश हुकूमत का कोप भाजन, अभाव, कष्टप्रद जीवन तथा पथरीले पथ पर नंगे पैर चलना था। पत्रकारिता को मिशन के रूप में वरण करने वाले अनेक ऐसे देदीप्यमान पत्रकार हुए हैं, जिन्होंने देश सेवा के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर त्याग, संघर्ष, बलिदान और सहनशीलता की जो मिसाल प्रस्तुत की वह आज भी पत्रकारों के लिए अनुकरणीय है।
पत्रकारिता के पुरोधा एवं स्वाधीनता आन्दोलन के जननायक गणेश शंकर विद्यार्थी ऐसे ही मनीषी पत्रकारों में थे जिन्होंने राष्ट्र, समाज, तथा दीन-दुखियों की सेवा के लिए अपना जीवन तक बलिदान कर दिया। शोषित पीड़ित जन के लिए उनके ह्दय में असीम संवेदना थी। उनसे यह कभी नहीं देखा जाता था कि, किसी निर्दोष व्यक्ति के साथ कोई अन्याय हो। जहां कहीं भी अत्याचार होता, वे उसका कड़ा विरोध करते थे। गरीब किसानों और मजदूरों को पूंजिपतियों एवं सामंतो के शोषण व अत्याचारों से बचाने के लिये उन्होंने लड़ाई छेड़ दी थी। उन्हें पहली बार रायबरेली के सामन्त सरदार वीरपाल सिंह के अत्याचारों की आँखो देखी रिपोर्ट प्रकाश्ति करने पर जेल जाना पड़ा। विद्यार्थी जी ने 1919 में कानपुर के मिल मजदूरों को वाजिब मजदूरी दिलाने के लिए अन्दोलन चलाया था जिसमें 25 हजार मजदूरों का सफल नेतृत्व किया था। उन्होंने सदैव निष्पक्ष एवं निर्भीक पत्रकारिता की और संसाधनों के अभाव में भी “प्रताप' का सफलता पूर्वक प्रकाशन किया। देश के राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक आन्दोलन के इतिहास में उन जैसा शायद ही अन्य कोई व्यक्ति हुआ हो। विद्यार्थी जी का चिन्तन केवल स्वाधीनता आन्दोलन तक ही सीमित नहीं था, बल्कि स्वाधीनता प्राप्ती के पश्चात् देश के आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास का एक सम्पूर्ण ब्लू प्रिंट उनके मस्तिष्क में था जो प्रताप के प्रथमांक के अग्रलेख में अभिव्यक्त होता है राष्ट्रीय राजनीति में भी विद्यार्थी जी के योगदान को कम नहीं आंका जा सकता। वे एक सफल पत्रकार तो थे ही, एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। उत्तर भारत की राजनीति में उनकी गिनती प्रथम पंक्ति के नेताओं में की जाती थी। उन्होंने कानपुर को जन आन्दोलन एवं क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र बना दिया था। भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर जैसे महान क्रांतिकारियों के लिए वे प्रेरणा स्त्रोत बने रहे तथा उनका समाचार पत्र कार्यालय अज्ञातवास हुआ करता था। विद्यार्थी जी ऐसे पहले व्यक्ति थे जो  काकोरी काण्ड के अभियुक्तों के समर्थन में खुलकर सामने आए और पैरवी करवाई थी तथा जेल में अनशनकारियों का अनशन समाप्त करवाया। विद्यार्थी जी के व्यक्तित्व और उनके “प्रताप' से गांधी जी और बालगंगाधर तिलक इतने प्रभावित थे कि 1916 में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के बाद इक्का गाड़ी मे बैठकर विद्यार्थी जी के प्रताप प्रेस गए और वहां दो दिन तक ठहरे थे। उनके राजनीतिक कद का अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 1925 में कानपुर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान वे नेहरू जी के साथ-साथ घोड़े पर सवार होकर सभा स्थल का भ्रमण करते थे। सन 1930 में वे प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष बनाए गए। तिलक के पश्चात् कांग्रेस के राष्ट्रीय अन्दोलन और कांग्रेस के मंच पर महात्मा गांधी के नेतृत्व को उन्होंने स्वीकार किया लेकिन गांधी की विचारधारा को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। गांधी जी के अहिंसक आन्दोलन के वे समर्थक थे किन्तु स्वाधीनता आन्दोलन के क्रान्तिकारियों के संरक्षक भी थे। अहिंसा के बारे में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि-““मैं नान वायलेंस को शुरू से अपनी पॉलिसी मानता रहा हूँ, धर्म नहीं।' विद्यार्थी जी राजनीति में आने के पूर्व ही पत्रकारिता में स्थापित हो चुके थे और उनकी पत्रकारिता राजनीति की तुलना में अधिक प्रभावशाली थी। वास्तव में वे अपने आप में एक महान संस्थान थे। वे अपने समकालीन पत्रकारों के मार्गर्दशक एवं प्रेरणा स्त्रोत बने रहे। माखनलनल चतुर्वेदी, कृष्ण दत्त, पालीवाल, बालकृष्ण शर्मा “नवीन', दशरथ प्रसाद द्विवेदी जैसे मनीषी पत्रकारों ने उनसे प्रेरणा पाकर ही पत्रकारिता में प्रवेश किया एवं आर्दश मानदण्ड स्थापित किए। विद्यार्थी जी में पत्रकारिता के संस्कार इलाहबाद में प्रसिद्ध पत्र “स्वराज' एवं “कर्मयोगी' के संपादकों के सम्पर्क में आने से पल्लवित होने लगे थे। लेखन कला तो उन्हें विरासत में ही प्राप्त हुई थी। जब उन्होंने ““हमारी आत्मोसर्गता'' नामक पुस्तक लिखी तब उनकी आयु मात्र 16 वर्ष थी। उन्होंने सर्वप्रथम “स्वराज्य' व “कर्मयोगी' के लिए टिप्पणी लिखना आरंभ की। विद्यार्थी जी की लेखनी कितनी धारदार थी इसका अनुमान इस घटना से ही लगाया जा सकता है, जब वे प्रताप के संपादक थे, तब रायबरेली की अदालत में मुंशीगंज गोली काण्ड की सुनवाई के दौरान गवर्नर ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा था- “जब तक कानुपर का प्रताप जीवित है तब तक उत्तर प्रदेश में शांति स्थापित नहीं हो सकती।'
समर्पण व निराशाजनक शब्द उनके शब्दकोष में नहीं थे। प्रलोभन, धमकी-घुड़की के आगे वे कभी नहीं झुके। असत्य बात का वे घोर विरोध करते थे, भले ही यह उनके मित्रों द्वारा ही क्यों न कही गई हो। सत्य-असत्य की सूक्ष्म जांच पड़ताल के बाद ही रिपोर्ट छापते थे। इसीलिए अपनी बात पर अड़े रहते थे, फिर भले ही जेल क्यों न जाना पड़े। निष्पक्ष व निर्भीक लेखनी से उन्होंने प्रताप को जन आंदोलन का पर्याय बना दिया था। देशी सामन्तों के अत्याचारों और अंग्रेजों के विरोध में लिखने के कारण प्रताप की छवि सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्ट्रेट स्ट्राइफ ने प्रताप को ““बदनाम-पत्र'' की संज्ञा देकर जमानत राशि जप्त करने के आदेश दिए।
सन् 1921 से 1930 तक विद्यार्थी जी को पांच बार जेल जाना पड़ा और यह प्रायः प्रताप में प्रकाशित किसी न किसी समाचार के कारण होता था। चूंकि उस समय गोरी सरकार की मुखालफत करना या उसके अत्याचार को प्रकट करना भी राजद्रोह मान लिया जाता था लेकिन विद्यार्थी कभी किसी के आगे झुके नहीं, चाहे ब्रिटिश हुकूमत हो या देशी रियासतों के हुक्मरान। देश के किसी भी हिस्से में कोई आंदोलन या अत्याचार की कोई घटना हो, सभी उनके पत्र में छपती थी। चाहे राजस्थान का बिजोलिया जन आंदोलन हो या चम्पारण, सभी में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देश-विदेश की सभी घटनाओं पर वे पैनी नजर रखते थे और उन पर त्वरित प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते थे।
विद्यार्थी जी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहबाद में अपने नाना श्री सूरज प्रसाद श्रीवास्तव के घर हुआ था। पिता श्री जयनारायाण श्रीवास्तव ग्वालियर रियासत में मुंगावली के एंग्लो-वार्नाकुलर स्कूल में श्क्षिक थे। विद्यार्थी जी की प्रारंभिक श्क्षि मुंगवाली में ही हुई। पिता जी हिन्दी, फारसी तथा अंग्रेजी के अच्छे जानकार होने के कारण विद्यार्थी जी को तीनों ही भाषाएं पढ़ाई गई। पिता का स्थानान्तरण भेलसा (अब विदिशा) हो गया जहां से उन्होंने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। विदिशा में आगे की पढ़ाई की व्यवस्था न होने के कारण वे नौकरी करने अपने बड़े भाई शिवव्रत नारायण के पास कानपुर चले गए किन्तु बड़े भाई को यह पसंद नहीं था कि तीक्ष्ण बुद्धि गणेक्ष इतनी छोटी उम्र में नौकरी करे। इसलिए उन्होंने यूपी. बोर्ड की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने के लिए पिता जी के पास वापस भेज दिया।
कुशाग्रबुद्धि के बालक गणेश 1907 में एफ.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर आगे की पढ़ाई के लिए इलाहबाद कायस्थ पाठशाला चले गये। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण पढ़ाई बीच में ही बंद करनी पड़ी। उन्हीं दिनों इलाहाबाद से उर्दू में “स्वराज्य' और हिन्दी में “कर्मयोगी' निकल रहा था। विद्यार्थी जी ने “स्वराज्य' में उर्दू में टिप्पणी लिखने के साथ ही अपने पत्रकारिता जीवन शुरूआत की। कर्मयागी के संपादक श्री सुंदर लाल के आग्रह पर उन्होंने कर्मयोगी के लिए भी लिखना आरंभ किया। सुन्दरलाल जी के सम्पर्क में आने के पश्चात् ही विद्यार्थी जी के पत्रकारिता में आने की परिस्थितियां निर्मित होने लगी। फरवरी 1908 में उन्हें कानपुर के करेंसी कार्यालय मे नौकरी मिल गई लेकिन बमुश्किल एक वर्ष ही कर पाए और त्याग पत्र दे दिया।
कानपुर में ही विद्यार्थी जी श्री नारायाण प्रसाद अरोड़ा के सम्पर्क में आए। क्रांतिकारी गतिविधियों में दीक्षित अरोड़ा जी के प्रयास से ही उन्हें 20 रुपये मासिक पर उसी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई जिसमें श्री अरोड़ा अध्यापक थे। लेकिन एक वर्ष के भीतर ही दोनों को नौकरी से निकाल दिया गया। क्योंकि दोनों ही “कर्मयोगी' पढ़ते थे जो आपत्तिजनक समझा जाता था। उन्हीं दिनों कानपुर से महवीर प्रसाद द्विवेदी जी “सरस्वती' निकाल रहे थे। द्विवेदी जी के आग्रह पर उन्होंने सरस्वती' के लिए एक लेख लिखा। उनका लेख “अत्मोसर्ग' छपने के बाद द्विवेदी जी ने गणेश जी को अपना सहायक बना लिया और इस प्रकार नवम्बर 1911 में विद्यीर्थी जी हिन्दी पत्रकारिता में स्थापित हो गए। उनकी प्रतिभा को देखते हुए आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी जी ने कहा था कि-““उनकी शालीनता, सुजनता, परिश्रमशीलता और ज्ञानार्जन की सदिच्छा ने मुझे मुग्ध कर लिया है। उधर वे मुझे शिक्षक या गुरू मानते थे, इधर मैं स्वयं ही कितनी बातों में उन्हें अपना गुरू समझता था''। “सरस्वती' साहित्यिक पत्रिका थी तथा इसमें राजनीतिक लेखन की अधिक गुंजाइश नहीं थी। विद्यार्थी जी का रूझान राजनीतिक लेखन की ओर होने के कारण अधिक समय तक सरस्वती में नहीं रह सके और वे कानपुर से प्रयाग आ गए जहां “अभ्युदय' में सहायक सम्पादक बन गए।
स्वास्थ्य खराब होने के कारण विद्यार्थी जी पुनः प्रयाग से कानपुर आ गए। कानपुर आने के बाद ही वह अवसर आया जब वे अपने सपने को मूर्तरूप दे सके। कई दिनों से विद्यार्थी जी की इच्छा थी कि, एक ऐसा पत्र निकाला जाए जिसमें स्वतंत्रता पूर्वक लिखा जा सके। उन्होंने अपने मित्र शिवनारायण प्रसाद अरोड़ा के साथ मिलकर “प्रताप' के प्रकाशन की योजना बनाई और 9 नवम्बर 1913 को साप्ताहिक प्रताप का 16 पृष्ठों का टेब्लायड आकार में पहला अंक प्रकाशित हुआ। प्रताप के प्रथम अंक के अग्रलेख में विद्यार्थी जी ने लिखा- “आज अपने ह्दय में नयी-नयी आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्य पर पूर्ण विश्वास रखकर प्रताप कर्मक्षेत्र में आता है समस्त मानवजाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत जरूरी साधन हम भारत वर्ष की उन्नति को समझते हैं। उन्नति से हमारा अभिप्राय देश की कृषि, व्यापार, विद्या, कला, वैभव, मान बल, सदाचार और सद्चरित्रता की वृद्धि से है...........।' विद्यार्थी जी ने प्रेस और आमजन के अधिकार और कर्तव्यों के बारे लिखा कि-“हम अपने देश और समाज की सेवा का पवित्र कार्य का भार अपने ऊपर लेते हैं। हम अपने भाईयों और बहिनों को उनके कर्तव्य और अधिकार समझाने का यथाशक्ति प्रयत्न करेंगे। राजा और प्रजा में एक जाति और दूसरी जाति में, एक संस्था और दूसरी संस्था में बैर और विरोध, अशांति और असंतोष न होने देना अपना परम कर्तव्य समझेंगे हम अपने देशवासियों को उन सब अधिकारों का पूरा हकदार समझते हैं। जिनका हकदार संसार का कोई भी देश हो सकता है।'
प्रताप के अग्रलेख से विद्यार्थी जी के गहन चिंतन, कल्पनाशीलता एवं सृजनशीलता बिंबित होती है। उन्होंने पत्र-पत्रकारों के जो कर्तव्य निर्धारित किए तथा राष्ट्र के सर्वांगीण विकास की जो परिकल्पना प्रस्तुत की उसमें आज भी संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रताप का अग्रलेख सिर्फ विद्यार्थी जी ही नहीं अपितु भारतीय जनमानस की आवाज थी। उन्होंने प्रताप के द्वारा सोई हुई जनता में अपूर्व चेतना जगाई थी। विद्यार्थी जी के लेखन, संपादकीय योग्यता एवं व्यक्तित्व को लीडर में छपे उस लेख से रेखांकित कर सकते हैं जिसमें कहा गया था-“प्रताप के उस प्रभाव के पीछे क्या है? गणेश शंकर विद्यार्थी का व्यक्तित्व।' विद्यार्थी जी की पत्रकारिता केवल समाचार पत्रों तक ही सीमित नहीं थी। उन्होंने 1920 से 1926 तक हिन्दी में मासिक पत्रिका “प्रभा' का प्रकाशन-संपादन किया। मासिक “प्रभा' हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान बना गई तथा “प्रभा' से प्रेरणा लेकर ही अन्य पत्रिकाएं प्रकाश्ति हुई। विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे और जीवन भर कौमी एकता के लिये काम करते रहे। जब भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा सुनाए जाने के पश्चात् देश भर में साम्प्रदायिक दंगे शुरू हुए तब विद्यार्थी जी उन्हें रोकने के लिए अकेले ही घर से निकल पड़े और 25 मार्च 1931 को राष्ट्र विरोधी ताकतों द्वारा उनकी हत्या कर दी गई।


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