नफरत की प्रयोगशाला का  जिन्न  निगल गया शिवपुरी के  मासूम... 

 


चारों ओर नेता-अफसरों को ब्लैकमेल करने वाली सुंदरियो के  हुस्न गैंग का इतना भीषण नाद है कि उसने सारे समाचारों की  सुर्खियों को बौना बना दिया है। इस बैचेन कर देने वाले घटनाक्रम में कार्यपालिका और विधायिका जैसी संस्थाओं के महत्वपूर्ण प्रतिनिधियों के लिप्त होने की अपुष्ट सूचनाओं से इन संस्थाओं के प्रति बचाखुचा विश्वास डिग रहा है। साथ ही उम्मीद भी टूट रही है कि संपूर्ण न्याय की ये सबसे महत्वपूर्ण संस्थाएं अपने दायित्वों को पूरी तरह निभा पाएंगी। कोलाहल की इस कड़ी में मानवता को झकझोर कर नफरत के संस्कारों को बेनकाब करने वाला शिवपुरी कांड  न्यायिक और प्रशासकीय प्रक्रिया के मरुस्थल की फाइलों में दफन होने की ओर है... यहां  दैवीय आदेश पर राक्षस संहार बताते हुए अनुसूचित जाति के वाल्मिकी वर्ग के मासूम रोशनी-अविनाश की नृसंश हत्या कर दी गई थी। आरोपी गिरफ्त में हैं, बच्चों की मौत की कीमत मुआवजे में लगा दी गई है, शायद दो चार दिन में वहां शौचालय बनने का काम शुरू हो जाएगा जो कथित तौर पर उन बच्चों की हत्या की वजह बना। लेकिन 
दूर-दूर तक नजर दौड़ा ली जाए तब भी घटना के कारणों और उसकी मीमांसा पर कोई बात करने को प्रस्तुत नहीं है। 21 वीं शताब्दी में आखिर इतनी नफरत आई कहां से? दो मासूमों की हत्या करने वाला इतने इत्मीनान से कैसे कह सकता है कि वह भगवान के आदेश पर राक्षसों का संहार करने निकला है। 
घटनास्थल पर पहुंचे वाल्मिकी समुदाय के लोगों ने मृत बच्चों के पिता का वीडियो जारी किया है जिसमें कहा गया है कि 13 साल की रोशनी के फटे कपड़े इस बात की तस्दीक थे कि उससे या तो रेप हुआ है या कोशिश हुई है और उसके साथ ही 10 साल के अविनाश को लाठियों से ऐसे पीटा गया कि उनके फटे हुए सिरों से भेजा निकल कर मिट्टी में मिल गया। कहा ये गया है कि इस एंगल से जांच तक नहीं हुई। इसीलिए सवाल ये है कि बच्चों को नृसंश तरीके से मौत के घाट उतार देने लायक नफरत किसी खास संस्कार से जन्मी  या किसी सियासी प्रयोगशाला का आदमखोर जिन्न  है? ग्रामीण भारत में जहां हर एक का जीवन दूसरे की मौजूदगी से ताने-बाने से जुड़ा है वहां दो मासूमों की नृसंश हत्या को जस्टिफाई करने के लिए राक्षस और देवता की शब्दावली का इस्तेमाल करने की समझ विकसित करने वाली संस्था धर्म तो कतई नहीं हो सकती। वैसे भी भारत में वसुधैव कुटुंबकम सार्वभौम जीवन मूल्य है। इसमें कहीं जाति-धर्म की मिलावट नहीं है। इसी बीच स्त्री देह रूपा देवी के पूजन की नवरात्र प्रारंभ हो चुकी है... जिसमें शक्ति, समृद्धि और संस्कार समेत समस्त सुखों की कामना की जाती है। इस आराधना में वह वर्ग भी अपार भक्ति भाव से जुटता है जिनके बच्चों को राक्षस बता कर मौत के घाट उतार दिया गया है। क्या यह वज्रपात उन्हें यह संदेश देने की कोशिश नहीं है कि वे इस पूजन संस्कार का हिस्सा नहीं बल्कि शत्रु हैं? क्या यूपी और बिहार के बाद मध्यप्रदेश में भी सवर्ण-दलित को वर्ग में बांट कर सियासत की नई इबारत लिखने की कोशिश हो रही है? यह सवाल इसलिए क्योंकि हत्या के आरोपी ऐसे संगठनों से जुड़े बताए जा रहे हैं जो हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार में दलित बस्तियों तक पहुंचने में भी अगुवा है। इस व्यक्तिगत शत्रुता के चश्मे से भी देखा जा सकता था, लेकिन सवाल ये है कि उसी समय में बलात्कार के एक मामले में रतलाम को सिर पर उठा लेने ये धार्मिक संगठन शिवपुरी के मसले पर कहां लुप्त हो गए कोई भी उन गरीबों की उस झोपड़ी तक क्यों नहीं पहुंचा जहां दरवाजा तक नहीं है। क्या शहरी दलित बस्तियों में देवी-देवता विराजित कर वहां के बच्चों के नाम से गौत्र हटा हिंदू लिखने वाली संस्थाएं बड़े-बड़े पांडालों और चंदे के धंधे की रेत में शतरमुर्ग की तरह मुंह छिपा कर सवालों की आंधी थमने का इंतजार कर रही हैं? उत्सवी शोर के दौर में धर्म को वर्ग बना कर सियासी ताकत बटोरने वाले मातम की चित्कारें घुटने के इंतजार में हंै... क्योंकि इस घटनाक्रम पर दलितों के अधिकांश संगठन और नेताओं की प्रतिक्रिया सदियों से छितरे-बिखरे मानसिक गुलामों जैसी ही है। वे इस विभत्स घटना पर भी अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में उपस्थिति दिखाने की रस्म अदायगी करते नजर आ रहे हैं। सोशल मीडिया और छिटपुट प्रयासोंंं के अलावा केवल भीम आर्मी ने शिवपुरी कांड पर हुंकार भरी है। जातियों और धर्म के नाम पर सड़कों पर उमड़ने वाला जनसैलाब गायब है। कैंडल गैंग्स और सामाजिक संस्थाएं मुंह में दही जमा कर मौन हैं।
 सबसे ज्यादा दलित हिंसा के बावजूद सबसे कम सजाएं करा पाने वाले और हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहलाने वाले मध्यप्रदेश में बड़े-बड़े मठों में तब्दील सामाजिक न्याय व अध्ययन की संस्थाएं, वोट के लिए दलित प्रेम सराबोर राजनीतिक दल, मानवाधिकार के अंतरराष्ट्रीय दुकानदार  सब नेपथ्य में हैं और रस्म अदायगी से फेससेविंग ग्राउंड तैयार कर रहे हैं... बस वाल्मिकी समुदाय की घुटी-घुटी सिसकियां, घर-घर पहुंचते संदेश से समवेत स्वर बनने की प्रक्रिया में है, जिसमें सफाई कामगारों के संगठनों ने सुर मिलाया है कि वह 150 वीं गांधी जयंती पर मनाए जा रहे स्वच्छता महोत्सव का बहिष्कार  करेगा और सफाई काम को ठप करेंगे। उसी समय में त्यौहार चल रहे होंगे तब शासन-प्रशासन सख्ती करे या ढील दे दोनों ही स्थिति में बढ़ने वाला तनाव प्रदेश में बहुजन सियासत का बीज साबित हो सकता है।  जहां से सवाल उगेगा कि दलितों को राक्षस बता कर संहार का संस्कार देने वाली परिस्थितियों के गुनाहगारों का हिसाब कौन करेगा इसकी किसीको नहीं 


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