साजन ग्वालियरी का असली नाम बहुत से लोगों को मालूम नहीं होगा । होता भी कैसे, उन्होंने कभी किसी को बताया ही नहीं कि वे कब रामसेवक भार्गव से साजन ग्वालियरी बन गए। वे ‘ जगत साजन ‘ थे,कल तक साजन जी साजन ही रहे लेकिन अब उनके साथ था शब्द भी जुड़ गया है। अल्प बीमारी के बाद गुरुवार की रात वे इस नश्वर संसार से मुक्ति पा गए।
साजन ग्वालियरी के बारे में मेरा लिखना इसलिए जरूरी है क्योंकि मुझे आता है कि उनके आधी सदी के योगदान को इस शहर के अखबार रेखांकित करने में संकोच करेंगे । वे साजन जी की अंतिम यात्रा का विज्ञापन तो सहर्ष छापेंगे किन्तु उनके निधन की खबर नहीं। ये शहर के अखबारों का चरित्र है। इसके बारे में शिकायत करने से कोई लाभ नहीं।
साजन जी मेरे अग्रज थे । हमारा उनका कोई आधी सदी का साथ रहा । वे जब गवरू जवान थे ,तब मै किशोरवस्था की दहलीज पार कर रहा था । वे लोक निर्माण विभाग में सहायक अभियंता थे ,लेकिन उन्होंने जितनी सड़कें नहीं बनाएं उससे कहीं ज्यादा कविताएं लिखीं। वे मूलत : कवि ही थे । शायर नहीं ,लेकिन उनका नाम शायरों जैसा था। एक जमाने में मैं उनका छात्र था बाद में एक समय ऐसा भी आया जब मुंबई से निकलने वाली हास्य-व्यंग्य की पत्रिका ‘ रंग चककलस ‘ ने हमें प्रतिस्पर्धी बना दिया। रामरिख मनहर इस पत्रिका के सम्पादक -प्रकाशक थे । इस पत्रिका का एक स्तम्भ समस्यापूर्ति का हुआ करता था । इस स्तम्भ में साजन जी ,प्रदीप चौबे जी और मेरी गजलें नियमित रूप से छपतीं थीं। साजन जी सदैव मेरी सरहाना करते ,कभी उन्होंने मुझे अपना प्रतिद्वंदी नहीं माना।
उस जमाने में साजन जी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हास्य कवि हुआ करते थे । प्रकाश मिश्रा उनके समकालीन हैं। उस जमाने में कविता में छंद का साम्राज्य था । गीतकार ज्यादा थे। व्यंग्यकार भी गीतकार ही थे,जैसे स्वर्गीय मुकुट बिहारी सरोज ,लेकिन हास्य लिखने वाले साजन जी जैसे गिने-चुने कवि थे । साजन जी गजलें लिखते-लिखते कब मंच के हो गए मुझे याद नहीं। वे पूरे देश में कविताएं पढ़ने जाते थे । कम बजट के कवि सम्मेलन हों या बड़े बजट के कवि सम्मेलन साजन जी सबके लिए उपलब्ध रहते थे। सिगरेट उनकी संगिनी थी। जब वे सिगरेट का कश लगाते तो उनकी भंगिमा अलग ही होती थी।
साजन जी ने निरंतर लिखा । वे अकेले एक से दो घण्टे तक माइक पर जमे रह सकते थे । उन्हें हूट करना किसी के बूते की बात नहीं थी । शहर के कवि सम्मेलनों की तो वे जान थे । उन्होंने पैसे के लिए कभी किसी कवि सम्मेलन आयोजक से हुज्जत नहीं की। वे जो मिला उसी को मुक़द्द्र समझते थे। अच्छी खासी नौकरी थी सो कविता के जरिये पैसे बनाने के मामले में वे अपने समकालीन कवियों के मुकाबले ज्यादा उदार रहे। मप्र हिंदी साहित्य सभा की गोष्ठयां से लेकर ग्वालियर व्यापार मेला के स्थानीय कवि सम्मेलनों तक में उनकी उपस्थिति रहती थी । मेले के स्थानीय कवि सम्मेलन के तो वे वर्षों आयोजक रहे । शायद ही ऐसा कोई वर्ष रहा हो जब उन्होंने मुझे मेले के कवि सम्मेलन में आमंत्रित न किया हो। मै मेले के विशाल कवि सम्मेलन में आने से लगातार कतराता था लेकिन उनका आदेश टालना मुश्किल होता था ।
पिछले कुछ वर्षों से उनका दिल कमजोर हो गया था । उसका उपचार भी हो गया था । दिल ने उनकी सिगरेट से मुक्ति करा दी थी। पिछले साल 3 अक्टूबर की रात वे हमारे आमंत्रण पर हमारी सोसायटी एमके सिटी में आयोजित कवि सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे। उन्होंने मुझे कभी निराश नहीं किय। घरेलू गोष्ठियां हों या श्राद्ध पक्ष में निमंत्रण वे हँसते हुए प्रकट हो जाते थे। उन्होंने कविताओं के संग्रह प्रकाशित करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली हालाँकि उनकी कविताओं के संग्रह आये भी। सबसे बड़ी बात ये की साजन जी परनिंदक नहीं थे ।मुंहफट जरूर थे। अपने विरोधी से भी वे उसी गर्मजोशी से मिलते थे जितना की अपने चाहने वालों से साजन जी को मान-सम्मान ,यश, कीर्ति खूब मिली। इस मामले में वे भाग्यशाली रहे । कविता में उनकी पारी भी लम्बी रही । वे अपने साहित्यिक जीवन से ही नहीं अपितु अपने पारिवारिक जीवन से भी मुतमईन थे। कोई अभिलाषा उन्हें परेशान नहीं कर सकी । वे अंत तक लिखते-पढ़ते गए,लेकिन रुलाकर गये । उनके अस्वस्थ्य होने की भनक तक नहीं मिल पायी। वे हमेशा कहते थे -‘
- हमने जिनको अपना समझा,वे सब धोखेबाज हुए
- जूते भी थे नहीं पाँव में ,उनके सर पर ताज हुए
- साजन जी साहित्यिक चोरों से बहुत दुखी रहते थे । उन्होंने एक जगह लिखा भी –
- ‘मौलिकता पर लकर रहे जमकर के आघात
- सभी जगह पर घूमती चोरों की बरात
मुझे याद है की एक बार स्वर्गीय बैजू कानूनगो का एक गीत एक महिला कवियत्री ने चुरा लिया थ। साजन जी और प्रदीप चौबे जी ने जब तक उस कवियत्री को ग्वालियर बुलाकर बैजू जी के सामने नाक रगड़कर माफ़ी नहीं मंगवा ली तब तक चैन से नहीं बैठे। उनसे जुड़े अनेक प्रसंग हैं। उनका साहित्यिक योगदान सराहनीय है । वे वर्षों तक स्मृतियों में बसे रहेंगे । उनका न रहना लम्बे अरसे तक हम मित्रों को सालता रहेगा ।अब तो बस – ‘ साजन साजन पुकारूँ गलियों में कभी फूलों में ढूंडू कभी कलियों में ‘ वाली बात है। वे अब कभी नहीं लौटेंगे। विनम्र श्रृद्धांजलि।