(आलेख : बादल सरोज)
बात 1966 के नवम्बर की है। हिसार जिले के एक गांव में हुक्का गुड़गुड़ाते हुए एक ताऊ बोले कि पंजाब से अलग हो गए ये बहुत अच्छा हुआ!! उनके नाती ने पूछा कि ऐसा क्या बदल जाएगा? ताऊ बोले कि बेटा, पंजाब में ठण्ड बहुत पड़ती थी, अब नहीं पड़ेगी।
ताऊ एक व्यक्ति नहीं, प्रवृत्ति हैं ; ऐसे सदाशयी और भोले लोगों के कंधों पर ही हुक्मरानों की पालकी रहती और चलती आयी है। सत्ता में बैठे चतुर सिर्फ ऐसे ताऊओं को मामू बनाने का काम ही नहीं करते, वे इन्हें मामू बनने के लिए तैयार भी करते हैं, उन्हें ऐसा बनाये रखने के लिए अपने सारे घोड़े दौड़ा देते हैं, गदहों और खच्चरों को भी काम पर लगा देते हैं। बाकी काम भले भूल जाएं, मगर राज करने वाले इस काम को कभी नहीं भूलते।
ऐसे ही मामू बनाने की ताऊ की परम्परा पर चलते हुए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने चुटकी बजा के प्रदेश के 65 गांवों की समस्याओं का समाधान कर दिया है ; उन्होंने इनके नाम बदल दिये हैं। इन दिनों वे इसी तरह के काम में लगे हैं। जनवरी में वे शाजापुर गए थे, तो मंच पर खड़े-खड़े 11 गांवों के नाम बदल दिए थे। अभी कुछ दिन पहले फरवरी में एक अकेले देवास जिले के 54 गांवों के नाम बदलने की घोषणा भी मंच से ही कर मारी। इन गांवों की सूची किसी पटवारी या तहसीलदार या ग्राम पंचायत ने नहीं बनाई थी। यह सूची उन्हें भाजपा के जिला अध्यक्ष ने थमाई थी, जिस पर उन्होंने आव देखा न ताव, उस पर तुरंत अपना अंगूठा लगाया और कलेक्टर को उसकी तामील का हुकुम दे दिया। भले मध्यप्रदेश के गांव वालों की मुराद कुछ और ही हो, उस पर मुख्यमंत्री का कभी कोई गौर ही न हो, मुरादपुर का नाम बदल कर उन्होंने मीरापुर कर दिया और इस पर खुद ही बल्लियों उछलने भी लगे – बाकी ताऊओं के उछलने की उम्मीद भी करने लगे।
जरूरत गांव के हालात बदलने की है – सीएम नाम बदल रहे हैं। मध्यप्रदेश के गांव अपने इतिहास में कभी इतने परेशान और पशेमान नहीं रहे, जितने हाल के दौर में हैं। यह प्रदेश देश के उन चार-पांच प्रदेशों में से एक है, जहां किसान आत्महत्या एक आम बात हो गयी है । किसान के बेटे, भांजे, भतीजे मुख्यमंत्री, मंत्री, संत्री बनते रहे हैं ; मगर उनके बावजूद – सही कहें, तो उनकी वजह से – किसान आत्महत्या करते रहे हैं। ज्यादातर मामलों में कर्ज इसका कारण बनता है, जो इसलिए बढ़ता है, क्योंकि जिस फसल के लिए उसे लिया गया होता है, वह घाटे में चली जाती है।
इन दिनों यह घाटा कभी भी और किसी भी हालत में हो सकता है ; फसल बर्बाद हो जाए तब भी, फसल शानदार हो जाए तब भी । प्रदेश की खेती लगातार घाटे का सौदा बनी हुई है ; अभी कुछ ही महीने पहले इन्हीं मोहन यादव के मालवा सहित प्रदेश के बड़े हिस्से के किसान अपनी सोयाबीन को लागत तक न निकलने वाली कीमत पर बिकते हुए देखकर बिलबिलाये हुए थे। स्वतःस्फूर्त आन्दोलन से प्रदेश झनझना उठा था। किसान राजधानी-वाजधानी के चक्कर में पड़ने के बजाय गांव बंद और गांव के पास की सड़कें जाम कर रहे थे। यह सिर्फ सोयाबीन उत्पादक किसानों की कहानी नहीं है ; सारे धान पंसेरी के भाव तुल रहे हैं।
ऐसे हर मौके पर मुसक्का लगाये बैठे रहे उनके प्रदेश के मुख्यमंत्री अब उन्हें यह भुलावा दिलाना चाहते हैं कि जैसे गांवों के नाम बदलने से उनकी सोयाबीन, सरसों, गेंहू और धान की फसल मुनाफे में चली जायेगी। गौपुत्रों की मेहरबानी और गौ-गुंडों के प्रभाव के चलते प्रदेश के ज्यादातर गांव आवारा पशुओं के आतंक से बेहाल है, स्मार्ट मीटर के नाम पर आ रही आपदा से चिंतित हैं, बंद होते सरकारी स्कूलों, अस्पतालों और महँगी होती निजी शिक्षा और दवाओं से त्रस्त हैं और मुख्यमंत्री हैं कि उनके गांवों के नाम बदल कर ही मस्त है। ताज्जुब नहीं होगा, यदि आने वाले दिनों में इन आत्महत्याओं के लिए भी वे मोक्ष या किसान वीर जैसा कोई शब्द इस्तेमाल करने की घोषणा कर दें।
मोहन यादव उज्जैन के हैं : वही उज्जैन, जिसे संस्कृत के नामी साहित्यकार कालिदास के नाम से जाना जाता है। कालिदास के कालिदास बनने की विकासगाथा में एक कालिदास वे भी थे, जो जिस टहनी पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे। लगता है, इन्हें वे ही कालिदास याद है और जिस प्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी है, वे उसी की हरी-भरी डाली काटकर इंग्लॅण्ड, जर्मनी और जापान जाकर दिखाना चाहते हैं और उन्हीं के सहारे इन देशों के पूंजी पिशाचों को न्यौता देना चाहते हैं। उनके पूर्ववर्ती शिवराज सिंह ऐसे अनेक ड्रामे कर चुके हैं, जिनमें जितना खर्चा हुआ था, उतना भी विदेशी देसी निवेश नहीं आया।
भाषा मनुष्य समाज में सम्प्रेषण और संवाद का ही माध्यम नहीं है ; भाषा वर्चस्व का, शासक वर्गों के वर्चस्व का भी जरिया होती है, उन्हें गुमराह करने का औजार भी होती है। इतना ही नहीं, जैसा कि जॉर्ज ओरवेल ने कहा था “राजनीतिक भाषा झूठ को सत्य और हत्या को सम्मानजनक बनाने का काम करती है।” भाजपा जिस वैचारिक सोच के हिसाब से राजनीति करती है, उसमें भाषा के इस तरह के इस्तेमाल की अहम् भूमिका है। वे जोड़ने या संवाद करने के लिए नहीं, तोड़ने और खामोश करने के लिए भाषा को वापरते हैं।
गांवों के नाम बदलने के प्रहसन में इन साहब ने भी यही किया। मौलाना नाम के गांव का नाम बदलकर विक्रमपुर करते हुए वे जो बोले, वह संविधान की शपथ लेकर मुख्यमंत्री बने व्यक्ति की भाषा नहीं है ; किसी सभ्य और सुसंस्कृत व्यक्ति की भी भाषा नहीं है। उन्होंने कहा कि “गांव का नाम मौलाना लिखने में पेन अटकता था, अब विक्रमपुर लिखने में नहीं अटकेगा।” इस तरह उन्होंने खुद स्वीकार लिया कि गांवों को बदले बिना उनके नाम बदले जाने के पीछे किस तरह की विकृत मानसिकता है, किस तरह का विषाक्त सोच है।
यह घटना आने वाले दिनों के मध्यप्रदेश की स्थिति का पूर्वाभास देती है ; जाग्रत समाज के लिए कार्यभार तय करती है कि वह इसके निहितार्थ समझे और इस मायावी जाल को छिन्न-भिन्न करने के लिए जरूरी जद्दोजहद की तैयारी करे।