Breaking
31 Jan 2025, Fri

संस्कारों के द्वारा ही मनुष्य अपने अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है* डॉ. अर्चना प्रिय आर्य   “संस्कार: जीवन के उद्देश्य और मोक्ष की ओर मार्गदर्शन

सुनील त्रिपाठी प्रखर न्यूज़ व्यूज एक्सप्रेस

संस्कारों के माध्यम से मानवता का निर्माण और आत्मिक उन्नति”

मनुष्य संस्कारों के माध्यम से ही मुक्ति, मोक्ष, आनन्द को प्राप्त कर अपने जीवन को सफल, धन्य और सार्थक कर सकता है तथा जीवन जीने की कला भी सीख सकता है। संस्कारों की परम्परा अति प्राचीन है और इनका विस्तार भी समृद्ध है। लेकिन विभिन्न अध्ययनों के माध्यम से विदित होता है कि प्राचीन काल की अपेक्षा वर्तमान समय इस दिशा में अधिक उदासीन है। वर्तमान समय में व्यवहारिक स्तर पर यह स्पष्ट हो चुका है कि मनुष्यों की प्रवृत्ति संस्कारों की ओर न होकर उच्छंखलता की ओर अधिक अग्रसर हुई है। ये नारे गलत हैं कि हमारे देश में रोटी, कपडा और मकान का अभाव है। हां ये चीजें अधिक नहीं हैं, ये ठीक है पर यदि हम सब मिल-बांटकर खायें, मिल-बांटकर पहनें, मिल-बांटकर आवास व अन्य सुविधाओं का उपयोग करें तो किसी को भी किसी वस्तु की कोई कमी नहीं रहेगी। मानव में इसी दैवीय प्रवृत्ति का नाम है- संस्कार। मानव में आज इसी का अभाव है। कैसे हो इस अभाव की पूर्ति? वेद मां हमारा मार्गदर्शन करती है-

मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्

अर्थात् मानव तू मानव बन और दिव्य सन्तान का निर्माण कर। हर वस्तु का मूल्य उसके फल से जाना जाता है। आपका फल है आपकी सन्तान। आप आदर्श मानव हैं इसकी कसौटी है आपकी श्रेष्ठ व संस्कारवान सन्तान। संस्कार ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

संस्कार शब्द ही संस्कारों की महत्ता को बताता है। इस शब्द की निष्पत्ति इस प्रकार है- सम् उपसर्ग पूर्वक कृञ् धातु से धञ् प्रत्यय लगाने से और भूषण अर्थ को द्योतित करने वाले सुट् का आगम, पाणिनी के *’सम्पर्युभ्यः करौतौ भूषणे’* सूत्र से होता है। जिसका अर्थ होता है –

संस्क्रयते अलंक्रियते शरीरादिर्येन स संस्कारः

अर्थात् जिससे शरीर और आत्मा अलंकृत हो जाते हैं, उसे संस्कार कहते हैं। दूसरे रुप में जिस क्रिया से मन वाणी उत्तम हो उसे संस्कार कहते हैं।

संस्कारो हि गुणान्तरा धानं मुच्यते

अर्थात् पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटाकर उनकी जगह सद्गुणों का आद्यान करने को संस्कार कहते हैं। आत्मा जब-जब शरीर में आता है तब-तब वैदिक संस्कृति की व्यवस्था से संस्कारों की श्रृंखला से उसे ऐसा घेर दिया जाता है, जिससे उस पर कोई अशुभ संस्कार पडने ही नहीं पाता हैं। वैदिक संस्कृति में मनुष्य को बिल्कुल बदलकर उसमें आमूल-चूल परिवर्तन करने का जो प्रयास किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।

संस्कार का अर्थ वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य समाज में रहने के योग्य बन जाता है। वैदिक संस्कति की जो विचारधारा है उसके अनुसार यह जन्म पिछले व अगले जन्म यह सब संस्कारों द्वारा मानस शोधन का सिल-सिला है। संस्कारों की लगातार चोट से आत्म तत्व पर पडी माया को धो डालने का प्रयत्न है। जैसे एक मां बाजार से साग-सब्जी खरीदकर लाती है। क्या उसे वैसे ही पका देती है? नहीं उसको बीनती है, धोती है, काटती है और फिर उसमें मसाले आवश्यकतानुसार डालकर स्वादुव्यंजन तैयार कर देती है, इसी का नाम संस्कार है। एक माली समय-समय पर पौधौं की कांट-छांट करता है, इससे उसका बगीचा आकर्षण लगने लगता है। ये कटिंग करना ही संस्कार करना है। यह संस्कार भी छोटे-छोटे पौधौं का ही होता है। जो पेड बन गये हैं उन्हे आकृति में ढ़ालना कठिन होता है।

संस्कार शब्द का अर्थ शुद्ध करना, परिष्कृत करना या उन्नत करना है। गीता के अनुसार-

*न हि कश्चित् क्षणमपि जातुतिष्ठत्यकर्मकृत्*

अर्थात् बिना कर्म किये कोई मनुष्य क्षणभर के लिये भी स्थिर नहीं रह सकता है। अतः कर्म जीवन में आवश्यक है। ये कर्म शुभ भी होते हैं एवं अशुभ भी होते हैं। निरन्तर किसी कर्म को करने से उसकी वृत्ति बन जाती है। यह वृत्ति ही फिर मनुष्य के कर्म करने की प्रवृत्ति का हेतु बन जाती है। यह प्रवृत्ति या अभ्यास चित्त पर अकिंत होता है। चित्त पर अकिंत यह अभ्यास या वृत्ति इस शरीर के समाप्त हाने पर सूक्ष्म शरीर के साथ बनी रहती है। फिर पुनः शरीर धारण कर लेने पर सूक्ष्म शरीर पर अंकित वृत्ति के अनुसार व्यक्ति की शुभ अशुभ वृत्ति के अनुसार कर्म करने की स्फुरणा प्राप्त होती है। कर्म करने की इस स्फुरणा देने वाली वृत्ति का नाम ही संस्कार है। ये संस्कार शुभ-अशुभ जैसे भी हों जन्म-जन्मान्तरों तक साथ रहते हैं। ये संस्कार केवल कर्म करने के प्रेरक बन सकते हैं। किन्तु बलपूर्वक कर्म कराने के कारण नहीं होते हैं। वर्तमान जीवन के ज्ञान से, कर्म से हम अपने इस संस्कार को, कर्म करने की वृत्ति को जन्मान्तर से प्राप्त कर्मोभ्यास का परिवर्तन कर सकते हैं। इसी अर्थ में प्रारब्ध (पूर्व जन्म के संचित संस्कार) की अपेक्षा पुरषार्थ प्रबल होता है। हम पूर्व जन्म के संस्कारों से बंधे हुये नहीं हैं, उन्हे बदलना हमारे हाथ में है। पूर्व जन्मों के अशुभ संस्कारों के परिवर्तन के लिये शुभ संस्कारों के उन्नयन के लिये ही हमारे पूर्वजों ने संस्कार प्रणाली की आधारशिला रखी है। शुभ-अशुभ कर्मफल में कभी परिवर्तन नहीं होता है। क्योंकि –

‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’ तथाना भुक्तं क्षीयते कर्म’

के अनुसार तो कर्मफल तो अवश्य प्राप्त होता है। उसमें परिवर्तन हमारे हाथ में नहीं है। हम तो केवल कर्माभ्यास, कर्म वृत्ति या कर्म संस्कार में परिवर्तन कर सकते हैं। इसलिए हमें निराश न होकर सदैव शुभ संस्कारों को करते रहना चाहिये। इस प्रकार-

संस्करण गुणान्तरा धानं संस्कारः

शुभ गुणों का आधान करना, मन व आत्मा पर पडे हुये सूक्ष्म प्रभाव को, अशुभ प्रभाव को बदलना, उनको शुद्ध करना, परिष्कृत करना संस्कार कहलाता है या जिन कर्मों से आत्मा, मन एवं शरीर, शुभ गुणों, उत्तम गुणों से सुशोभित होते हैं वो संस्कार कहलाते हैं। निश्चय से शरीर को उत्तम बनाने योग्य एवं उसको धर्मानुकूल कार्य में प्रवृत्त कराने वाले मुख्य साधन केवल संस्कार ही हैं। संस्कारों के द्वारा केवल शारीरिक उन्नति ही नहीं अपितु मानसिक, वांचिक तथा आध्यात्मिक उन्नति भी होती है।

वैदिक संस्कृति ने मानव के निर्माण की योजना को तैयार किया था। इसी योजना को सफल बनाने के लिये संस्कारों की पद्धति को प्रचलित किया था। संस्कारों से ही तो मनुष्य बनता है। आत्मतत्व जन्म-जन्मान्तरों में किस-किस प्रक्रिया में से गुजरा है? हर जन्म में इस पर संस्कार पडते हैं अच्छे या बुरे यही तो इस जन्म की, पिछले जन्म की और अगले जन्मों की कहानी है। इस संस्कृति में मनुष्य जन्म का उद्देश्य शुभ संस्कारों द्वारा आत्मतत्व के मैल को धोना है, उसे निखारते जाना है। पिछला मैल कैसे धोया जाए और नया रंग कैसे चढाया जाये? यह सब कुछ इस जन्म के संस्कारों द्वारा ही हो सकता है। इस जन्म में बंधकर ही तो आत्मतत्व पकड में आता है। बर्तन हाथ से पकडकर मंजता है, आत्मा का शरीर में बंधकर मैल धुलता है। मानव शरीर में बंधकर ही उस पर शुभ संस्कारों का नया रंग चढता है। जिस समय, जिस क्षण आत्मा मानव शरीर के बंधन में पडा उसी समय से, उसी क्षण से वैदिक संस्कृति उस पर उत्तम संस्कार डालना शुरु कर देती है। और उस क्षण तक डालती चली जाती है जब तक आत्मतत्व शरीर को छोडकर फिर तिरोहित नहीं हो जाता है। आत्मा जब-जब शरीर में आता है तब-तब वैदिक संस्कृति की व्यवस्था से संस्कारों की श्रृंखला से उसे ऐसा घेर दिया जाता है जिससे उस पर कोई अशुभ संस्कार पडने ही नहीं पता। संस्कार तो पडने ही हैं कोई व्यवस्था नहीं होगी तो अच्छों के स्थान पर बुरे संस्कार ज्यादा पड़ते जायेगें। मानव का निर्माण हाने के स्थान पर मानव का बिगाड होता चला जायेगा। व्यवस्था होगी तो संस्कारों का नियमन होगा। अच्छे संस्कार पडें, बुरे न पडें इस बात का नियत्रंण होगा तो मनुष्य लगातार मनुष्य बनता जायेगा। स्वयं उठता जायेगा, समाज को उठाता जायेगा। वैदिक संस्कृति की जोे विचारधारा है उसके अनुसार यह जन्म पिछले जन्म व अगले जन्म यह सब संस्कारों द्वारा आत्म-शोधन का सिलसिला है। संस्कारों की लगातार चोट से आत्म तत्व पर परै मैल को धो डालने का प्रयत्न है। वैदिक संस्कृति में मनुष्य को बिल्कुल बदल देने, उसमें आमूल-चूल परिवर्तन करने का जो प्रयास किया जाता है उसमें दो चार संस्कार नहीं सोलह संस्कार हैं।

आज संसार मेें भृष्टाचार उन लोंगों ने नहीं फैलाया जिनके पास खाने को रोटी नहीं, पहनने को कपड़े नहीं और रहने को मकान नहीं। भृष्टाचार उन लोंगों से फैल रहा है जिनके पास सब कुछ है। इसलिये समझना कि मूल समस्या रोटी, कपडा और मकान की है गलत है। वैदिक संस्कृति का मूल ध्येय मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ ऐसी योजना को हाथ में लेना है जिससे नव मानव का निर्माण हो सके। यह योजना थी संस्कारों द्वारा मानव का निर्माण करना, सुस्ंकृत मानव बनाना। जैसे बीज में वृक्ष समा जाता है, वृक्ष बीज का ही फैलाव है। इसी प्रकार संस्कार में सारे मनुष्य के कर्म समाये रहते हैं। अनन्त कर्म समेटकर संस्कार में समा जाते हैं। एक-एक कर्म का फल भोगना पडे ऐसी बात नहीं है क्योंकि सब कर्मों का एक घोल बन जाता है जिसे संस्कार कहते हैं।

हम कर्म तो सैकडों-हजारों करते हैं परन्तु उसका संक्षिप्त रुप संस्कार है, प्रवृत्तियां हैं, स्वभाव है। मनुष्य के जो संस्कार बन जाते हैं, जो प्रवृत्तियां बन जाती हैं, जो स्वभाव बन जाता है वह एक कर्म का परिणाम नहीं होता है। अनेक तथा भिन्न-भिन्न कर्मों का परिणाम होता है। इसलिए मनुष्य को बदलने, उसका नव निर्माण करने में हमारी मूल समस्या संस्कारों की मूल प्रकृति एवं स्वभाव की है। हम किसी से कहें चोरी मत करो, झूठ मत बोलो तो उसके एक-एक कर्म का परिवर्तन नहीं करना होगा। हमें उसकी प्रवृत्ति को बदलना नहीं संस्कारों को बदलना है। मनुष्य के संस्कार बदल गये तो वह स्वंय बदल जायेगा, नव मानव का निर्माण हो जायेगा। वैदिक संस्कृति ने इसी दृष्टि से संस्कार पद्धति को जन्म दिया था। बालक के जन्म लेते ही उसे संस्कारों की ऐसी भट्टी में डाल देते थे जिसमें उसके जीवन का रास्ता टेडा-मेडा न होकर सीधा रास्ता बन जाता था। इन संस्कारों के माध्यम से ही मनुष्य का जीवन सफल, धान्य और सार्थक हो सकता है और मनुष्य अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

यह लेख संस्कारों की महत्ता और उनके जीवन में भूमिका को बहुत सुंदर तरीके से प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि संस्कारों के माध्यम से ही मनुष्य अपने जीवन का उद्देश्य और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। संस्कार केवल एक आदर्श मानव बनाने की प्रक्रिया नहीं हैं, बल्कि ये आत्मा के शुद्धिकरण, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में भी मदद करते हैं।

प्रोफसर (डाॅ.) अर्चना प्रिय आर्य लेख में वैदिक संस्कृति द्वारा संस्कारों की महत्वता को विस्तार से बताया गया है, जैसे कि मनुष्य की सामाजिक और धार्मिक जिम्मेदारियां निभाने के लिए संस्कारों का पालन अनिवार्य है। यह केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक और आत्मिक विकास में भी सहायक होते हैं। लेखिका ने संस्कारों की श्रृंखला को जीवन की सफलता के लिए आवश्यक बताया है, जो मनुष्य को सही मार्ग पर ले जाती है और जीवन को सार्थक बनाती है।

लेखिका

प्रोफसर (डाॅ.) अर्चना प्रिय आर्य

सनातन वैदिक धर्म प्रचारिका

अध्यक्ष : संस्कार जागृति मिशन

By archana

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *